SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 555
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ४५१ ] रने में आती है जिसका विस्तार पूर्वक इस ग्रन्थ में छपगया है इसलिये कालचूडा वगैरह के बहाने करके कुयुक्तियों से उसी के दिनों की गिनती निषेध करने वाले श्रीजिनेश्वर भगवानकी आज्ञाके लोपी उत्सूत्रभाषक बनते हैं, सो तो इस ग्रन्थको पढ़ने वाले तत्वज्ञ स्वयं विचार सकते हैं इसलिये श्रीजिश्वर भगवानकी आज्ञा के आराधन करने की इच्छावाले जे आत्मार्थी सज्जन होवें गे सो तो अधिकमामके दिनों की गिनती निषेध करनेका संसारवृद्धिका हेतुभूत उत्सूत्र भाषणका साहस कदापि नहीं करेंगे, और भव्यजीवों को इस ग्रन्थको पढ़ कर के भी अधिकमास के निषेध करने वालों का पक्ष ग्रहण करके अभिनिवेशिक मिथ्यात्व से बालजीवों को कुयुक्तियों के भ्रम में गेरनेका कार्य करनाभी उचित नही है और गच्छका पक्षपात छोड़कर न्याय दृष्टिसे इस ग्रन्थका अवलोकन करके अधिकमास के दिनोकी गिनती पूर्वकही पर्युषणादि धर्म व्यव हारमें वर्ताव करना सोहो सम्यक्त्वधारी आत्मार्थियों को परम उचित है इतने परभी जो कोई अपने अन्तर मिथ्यात्व के जोर से अज्ञ जीवोंको भ्रमानेके लिये अधिक मासको गिनती निषेध संबंधी कुयुक्तियों का संग्रह करके पूर्वापरका विचार किये बिनाही मिथ्यात्वका कार्य करेगा तो उसीका निवारण करनेके लिये और भव्य जीवोंके उपकार के लिये इस ग्रन्थ कारकी लेखनी तैयारही समझना । अब पर्युषणासंबंधी लेखकी समाप्तिके अवसर में पाठक गणको मेरा इतनाही कहना है कि श्रीतपगच्छके विद्वान् कहलाते जोजो महाशय की श्री अनंततीर्थंकर गणधरादि महाराज के विरुद्धार्थमें पंचांगी के अनेक प्रमाणोंको प्रत्यक्षपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy