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________________ [ ३३ ] मासको गिनतीमें ले करके ही पर्युषणा करने का कहा है तथापि सातवे महाशयजी पर्युषणा सम्बन्धी श्रीजैनशास्त्रों के तात्पर्य्यको समझे बिना अज्ञात पनेसै उत्सूत्र भाषक हो करके अधिक मासका निषेध करनेके लिये गच्छपक्षी बालजीवोंको मिथ्यात्व में फंसाने वाली अनेक कुतोंका संग्रह करते भी अपने मंतव्यको सिद्ध न कर सके तब लौकिक व्यव. हारका सरणा लिया तथापि लौकिक व्यवहारसें भी उलटे वर्तते हैं क्योंकि लौकिक जन (वैष्णवादि लोग) तो अधिक मासमें विवाहादि संसारिक कार्य छोड़कर संपूर्ण अधिक मासको बारहमासोंसे विशेष उत्तम जान करके 'पुरुषोत्तम अधिक मास' नाम ररूखके दान पुण्यादि धर्मकार्य विशेष करते हैं और अधिक मासके महात्मकी कथा अपने अपने घर घरमें ब्राह्मणोंसे वंचाकर सुनते हैं। अब पाठकवर्गको विचार करना चाहिये कि-लौकिकजन भी जैसे बारह मासोंमें संसारिक व्यवहारमें वर्तते हैं तैसेही अधिक मास होनेसे तेरह मासोंमें भी वर्तते हैं और बारह मासोंसे भी विशेष करके दानपुण्यादि धर्मकार्य अधिक मासमें ज्यादा करते हैं और विवाहादि मुहूर्त निमित्तिक कार्य नहीं करते हैं परन्तु बिना मुहूर्त के धर्मकायाको तो नही छोड़ते हैं और सातवें महाशयजी लौकिक जनकी बातें लिखते हैं परन्तु लौकिक जनसे विरुद्ध हो करके धर्मकार्यों में अधिक मासके गिनती का सर्वथा निषेध करते कुछ भी विवेक बुद्धिसें हृदयमें विचार नहीं करते है क्योंकि लौकिक जन की बात सातवें महाशयजी लिखते हैं तबतो लौकिकजन की तरहही सातवें महाशयजीको भी वर्ताव करना चाहिये सो तो नही करते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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