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________________ [ ३२ आलोचना तो स्वयं मंजूर हो चुकी और श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंका कहा हुवा तथा प्रमाण भी करा हुवा अधिक मासको उत्सूत्र भाषण करके निषेध करते हैं और प्रमाण करने वालोंको दूषण लगाते हैं सो पुरुष अधिक मासकी आलोचना नही करे तो उन्होंके मति कल्पनाकी बातही जुदी है परन्तु श्रीतीर्थङ्करगणधरादि महाराजांकी आशानुसार अधिक मासकी गिनती प्रमाण करने वालोंको तो अवश्य ही अधिक मासकी आलोचना करना उचित है। इतने पर भी जो नहीं करने वाले हैं सो श्रीजिनाजाके उत्यापक हैं। और श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजांकी भाव परंपरानुसार चंद्रसंवत्सरका और अभिवर्द्धित संवत्सरका यथोचित भवसर पर जुदा जुदा अर्थ ग्रहण करके सांवत्सरीमें क्षामणा करनेकी अनुक्रमे अखंडित मर्यादा चली आती है इसलिये पर्वाचार्यों ने अधिक मासकी गिनती करनेकी तो सभी जगह व्याख्या करी है परन्तु क्षामणा सम्बन्धी संवत्सरशब्द लिखा है जिसका कारण यही है कि अधिक मास प्रमाण हुआ तो क्षामणे करने का तो स्वयं प्रमाण हो चुका, जब सम्वेगी साधु मान लिया, तब महाव्रतधारी तो स्वयं सिद्ध हो चुका। जब श्रीजिनेश्वर भगवान्की मूर्तिको श्रीजिन सदृश मान्य करी तब उसीको वंदना पूजना तो स्वयं सिद्ध हो गया। जब व्याख्यान वांचना मंजूर कर लिया, तब जानकार तो स्वयं सिद्ध होगया। ऐसे ऐसे अनेक दृष्टान्त प्रत्यक्ष हैं सो विशेष पाठकवर्गभी विचार सकते हैं। ___ और श्रीजैनशास्त्रोंके तात्पर्यको नहीं जानने वाले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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