SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 454
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ३५० ] है कि-खास सातवें महाशयजी केही परमपूज्य श्रीतपगच्छके ही प्रभाविक श्रीदेवेन्द्रमूरिजीने श्रीश्राद्धदिनकृत्य सूत्रकी वृत्तिमें, श्रीकुलमण्डनसूरिजीने श्रीविचारामृतसंग्रहनामा ग्रन्थमें, श्रीरत्नशेखरसूरिजीने श्रीवन्दीता मत्रकी वृत्तिमें, और श्री हीरविजय मरिजीके सन्तानीये श्रीमानविजयजीने तथा श्रीयशोविजयजीने श्रीधर्मसंग्रहकी वृत्तिमें खुलासा पूर्वक सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करना कहा है इन महाराजांको सातवें महाशयजी शुद्धपरूपक आत्मार्थी श्री जिनाज्ञाके आराधक बुद्धि निधान कहते हैं जिसमें भी विशेष करके श्रीयशोविजयजी के नाम में श्रीकाशी ( वनारसी ) नगरी में पाठशाला स्थापन करी है तथापि उन महाराजोंके कहने मुजब सामायिकाधि. कारे प्रथम करेमिभंतेको प्रमाण नही करते हैं फिर उन महाराजांको पूज्य भी कहते हैं यह तो प्रत्यक्ष उन महाराजोंके कहने पर तथा पञ्चाङ्कीके शास्त्रों पर श्रद्धा रहितका नमूना है। यदि सातवें महाशयजी अपने गच्छके प्रभाविक पुरुषोंके कहने मुजब तथा श्रीयशोविजयजीके नामसें पाठशाला स्थापन करी है उन महाराज के कहने मुजब वर्त्तने. वाले,तथा उन महाराजांके पूर्णभक्त, और पञ्चाङ्गीके शास्त्रों पर श्रद्धा रखने वाले होवेंगे,तब तो सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंतेको प्रमाण करके अपने भक्तोंसें जरूरही करावेंगे तो सातवें महाशयजीको आत्मार्थी समझने में आवेंगा । सामा. यिकाधिकारे प्रथम करेमिभंते २१ शास्त्रों में लिखी है परन्तु प्रथम इरियावही किसी भी शास्त्र में नही लिखी है इसका सुलासा पूर्वक निर्णय इसीही ग्रन्यके पृष्ठ ३१० से ३२९ तक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy