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________________ [२८] तप नहीं हो सकते, ऐसा कहना प्रत्यक्ष मृषा है। देखो- अंनतकालसे अनंततीर्थकर महाराज हो गये हैं, उन महाराजोंके च्यवनजन्म-केवलज्ञानादि कल्याणक होने में, कोईभी पक्ष, कोईभी मास, कोईभी दिवस या कोईभी वर्ष बाधक नहीं होसकते। किंतु हरेक माल, हरेक पक्ष, हरेकऋतु, व हरेक दिवसमें होसकते हैं इसलिये पहिले महीनेके या दूसरे महीनेके प्रथम पक्षमें, या दूसरे पक्षमें जिसरोज च्यवनादि जो जो कल्याणकहुए होवे उसी महीनेके उसी पक्षमे उन्हीं कल्याणकोका आराधन करना शास्त्रानुसार ही है। इसलिये इसको कोई भी निषेध नहीं कर सकता। मगर अभी जैन पंचांगके अभावसे व ज्ञानी महाराजके अभावसे अधिक पौषमें या अधिक आषाढमे कौन २ भगवान के कौन २ कल्याणक हुए हैं, उस की मालूम नहीं होनेसे तथा लौकिक टिप्पणामें हरेक मासोंकी वृद्धि होनेसे, चैत्र-वैशाचादि महीने बढे, तब भी परंपरागत ८४ गच्छाके सभी पूर्वाचार्योंने लौकिक रूढीके अनुसार कितनेक पर्व प्रथम महीने में और कितनेक पर्व दूसरे महीनेमें करने की प्रवृत्ति र. ख्खी है । उसी मुजब वर्तमानमेभी करनेमेआतेहैं । देखो-जैसेकार्तिक महीने संबंधी श्री संभवनाथजीके केवलज्ञानकल्याणक, श्रीपद्मप्रभुजीके जन्म व दीक्षा कल्याणक, श्रीनेमिनाथजीके च्यवन कल्याणक और श्रीमहावीरस्वामी निर्वाणकल्याणक व दीवाली पर्वादि कार्य दो कार्तिकहोवे तब प्रथमकार्तिकमैकरनेमें आतेहैं. तथा दो पौषहोंवतब श्रीपार्श्वनाथजीका जन्मकल्याणक पौषदशमीकापर्व प्रथम पौषमें करनेमें आता है । और दो चैत्र होवे तब पार्श्वनाथजीके केवलज्ञान कल्याणकादि तपकार्य उष्ण काल के प्रथम महीनेके प्रथम पक्षमें अर्थात् पहिले चैत्रमें करनेमे आते हैं मगर श्रीमहावीर स्वामीके जन्मकल्याणक व ओलीपर्वतो उष्णकालके दूसरे महीनेके चोथेपक्षमें अर्थात् दूसरेचैत्रमें करनेमेंआते हैं, ऐसेही दो आषाढ होवे तब आदीश्वरभगवान्के च्यवनीद उष्णकालके चौथेमहीने सातवे पक्षमे प्रथमआषाढमें करने में आते हैं और श्रीमहावीरस्वामीके च्यव. नादि पांचवेमहीने के दशवपक्षमें दूसरेआषाढमें करनेमें आते हैं, इसी. तरह आधिकमहिनेके दोनोपक्षोंकी गिनतीसहित सबी महीनोंके का र्य यथायोग्य कल्याणकादि तप वगैरह करनेमेआतेहै । इसलिये क. ल्याणकादि, तपकार्यमें अधिकमहिना गिनती नही लेते ऐसा कहना सर्वथा अनुचित है, इसको विशेष तत्त्वज्ञ जन स्वयं विचार लेवेंगे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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