SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २१३ ] जीवोंके सत्यवातकी श्रद्धारूपी सम्यक्त्व रक्तको, हरण करके मिथ्यात्व बढ़ाते है तैसेही श्री अनन्त जिनेश्वर भगवानों का कहा हुवा तथा प्रमाण भी करा हुवा अधिक मासको गिनतोमें निषेध करनेके लिये, आप लोग भी अधिकमासको अनेक प्रकार जिन्दा करते हुए अनेक कुतर्को करके भोले जीवोंके सत्य बातकी श्रद्धारूपी सम्यक्त्व रत्नका हरण करके मिथ्यात्व बढ़ाते हो इसलिये श्रीजैनशासन के निन्दक मिथ्यात्वी ढूंढियांका सरक्षा आपही लेते हो । २ दूसरा -- श्रीजैनशास्त्रों में नाम, स्थापना, द्रव्य, और भाव, यह चारोंही निक्षेपे मान्य करने योग्य, उपयोगी कहे हैं तथापि ढूंढिये लोग उत्सूत्र भाषणका भय न करते अनन्त संसारकी वृद्धि कारक, स्थापनादि निक्षेपोंको निषेध करके बिना उपयोग के ठहराते हैं तैसेही श्रीजैनशास्त्रामें द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावसें, चारोंही प्रकार की चुलाका प्रमाण गिनती करने योग्य, उपयोगी कहा है और गिनती में भी लिया है तथापि आप लोग उत्सूत्र भाषण का भय न करते कालचूलादिका प्रमाणको गिनती में निषेध करके प्रमाण नही करते हो सो भी ढूंढियांका सरणा आपही लेते हो । ३ तीसरा - इंडिये लोग 'मूलसूत्र मानते हैं मूलसूत्र मानते हैं' ऐसा पुकारते हैं परन्तु अपनी मति कल्पनासे अनेक जगह शास्त्रों के पाठोंका उलटा अर्थ करते हैं और अनेक शास्त्रोंके पाठोंको तथा अर्थको भी छुपाते हैं और शास्त्रों के प्रमाण बिना भी अनेक कल्पित बातोंको करके मिथ्यात्वमें फसते हैं और भोले जोवोंको फसाते हैं तैसेही आपलोग भी 'पञ्चाङ्गी मानते हैं पञ्चाङ्गी मानते हैं' ऐसा ३५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy