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________________ [ २६६ ] मुनिके मानका पत्र हमारे पास आया जिसमें पर्युषणाको 'बाबत कुछ लिखाया हमने मुनासिब नही समजा कि चुधा समय खोकर परस्पर ईर्षाकी वृद्धि करनेवाला काम किया जावे ) इस लेखपर मेरेको वड़ाही आश्चर्य उत्पन्न होता है कि श्रीवल्लभविजयजी में अपनी मायावृत्तिकी चतुराईको सूब प्रगट करी है क्योंकि प्रथम अपनेंही दूसरे श्रावण में पर्युषणा करने वालोंको आज्ञातङ्गका दूषण लगाया था उसी सम्बन्धी आपको श्रीबुद्धिसागरजी शास्त्रका प्रमाण खानमीमें ही पत्र भेजके पूछा था जिसका जबाब पीछा खानगी में ही लिख भेजने में तो छठे महाशयजी आपको बहुत समय वृथा खोनेका और परस्पर ईर्षाकी वृद्धि होनेका बड़ा ही भय लगा परन्तु लम्बा चौड़ा लेख जैनपत्र में भङ्गी चमारादि शब्दोंसें तथा निष्प्रयोजनकी अन्यान्य बातोंको और श्रीबुद्धिसागरजीको सूर्पनाकी वृथा अमुचित ओपमा लगाके उन्हकी खानगीकी पूजी हुई बातको ( पीछा ही खानगीमें जबाब न देते हुए ) प्रसिद्धमें लाकर अन्यायके रस्ते से उन्हकी अवहेलना करनेमें और श्रीखरतरगच्छवालोंके परमपूज्य प्रभावकाबाजी श्रीजिनपतिसूरिजी महाराजका श्रीजिनाचा मुजब अनेक शास्त्रोंके प्रमाणयुक्त सत्यवाक्यको पक्षपातके जोरसे अप्रमाण ठहरा कर श्रीखरतरगच्छवालों के दिल में पूरे पूरा रंज उत्पन करके और दूसरे गुजराती भाषाके लेखमें भी सर्व संघको, कान्फरन्सको, शेठियोंको, बकीलको, बेरिस्टरको, नाणाकोथली ( रुपैयोंकी चेली ) वगैरहको सावधान सावधान करके श्रीसंपके आपस में और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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