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________________ [ २६२ ] फन्दसें जबरदस्ति सूर्योदयकी पर्वरूप प्रथम चतुर्दशीको पर्वरूप नही मानते हुए, अपर्वरूप त्रयोदशी बनाकर के संख्याते, असंख्याते, अनन्ते जीवोंकी हानी तथा अब्र यदि पञ्चाश्रव सेवनका और सब संसार व्यवहारके काय्योंसे आरम्भादि होनेका कारणमें अधोगतिके रस्ता की खरूप कायोंमें आपलोग कटीबद्ध तैयार हो और अपने संयनरूप जीवितव्यके नष्ट होनेका और मिथ्यात्वी बननेका कुछ भी भय नही करतेहो इस लिये यह ਜੀ उत्सूत्र भाषण है । ११ सतरहमा - भी इसीही तरहसें लौकिक पञ्चाङ्गमें दो दूज, दो पञ्चमी, दो अष्टमी, दो एकादशी, वगैरह सूर्यो - दयको पर्व तिथियां होती है जिसको बदल कर, अपर्वकी - दो एकन, दो चतुर्थी, दो सप्तमी, दो दशमी वगैरह करके मानते हो सो भो उत्सूत्र भाषण है । १८ अठारहना भी इसीही तरहसे विशेष करके लौकिक पञ्चाङ्गमें संपूर्ण चतुर्दशी पर्वरूप तिथि होती है और दो पूर्णिमा तथा दो अमावस्या भी होती है जिसको तोडमोड़ करके संपूर्ण चतुर्दशीकी, त्रयोदशी और दो पूर्णिमाकी तथा दो अमावस्याकी भी दो त्रयोदशी कोइ भी जैनशास्त्रोंके प्रमाण बिना अपनी कपोल कल्पनासें बना लेते हो सो भी उस भाषण हैं । १९ एगुनवोशना- डौकिक पञ्चाङ्गमें जब कोई कोई वख्त दो पूर्णिमा अथवा दो अमावस्या होती है उसीमें चन्द्र अथवा सर्य्यका ग्रहण प्रथम पूर्णिमाको अथवा प्रथम अमावस्याको होता है जिसको सब दुनिया मानती है और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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