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________________ [ २४२ ] इन्ही पुस्तकके पृष्ठ १५७ से २१४ तक उपरमें छप चुकी हैं) तेसेही न्यायरत्न जीने भी प्राय उन्ही बातोंको अपनी चातुराईसें कुछ कुछ न्यूनाधिक करके ] मिथ्यात्वका पोष्टपेषणरूप मानु अपनी और अपने गच्छ वासी हठग्राही भक्तजनोंकी संसार वृद्धिका कारणरूप, शास्त्रानुसार सत्य बातोंका निषेध और शास्त्रकारोंके विरुद्धार्थ में कल्पित बातोंका स्थापनकर पुस्तक प्रगटकरके अविसंवादी अत्युत्तम जैनमें विसंवादरूप मिथ्यात्वका झगड़ा फैलाना न्यायरत्नजी चाहते हैं, जिसकी और गत वर्ष के लेखकी समालोचनारूप समीक्षा इस जगह लिखके न्यायरत्नजीके उत्सूत्र भाषणकी तथा कुतर्कों की चातुराईका दर्शाव प्रगट करना चाहुं तो जरूर करके २५० अथवा ३०० पृष्ठका यहां विस्तार वढ़ जावें जिससे आडों महाशयोंके नामकी पर्युषणा सम्बन्धी अबी जो समीक्षा सरू हैं उसीमें अन्तर पड़ जावें और यह ग्रन्थ भी बहुत बड़ा हो जावें इसलिये अबी यहां न्याय रत्नजी सम्बन्धी विशेष न लिखते पर्युषणा सम्बन्धी विषय पूरा होये बाद अन्तमें थोड़ासा संक्षिप्तसे लिखने में आवेगा जिससे श्रीजिनाजा इच्छक आत्मार्थी सज्जन पुरुषोंको सत्यासत्यका निर्णय स्वयं मालुम हो सकेगा ; और अब छठे महाशय श्रीवल्लभाविजयजीकी तरफसे पर्युषणा सम्बन्धी जो लेख जैन पत्रमें प्रगट हुवा है उसीकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हुं-जिसमें प्रथमही आगष्ट मासकी ८ वी तारीख संवत् १९०९ गुजराती प्रथम श्रावण वदी १ रविवारका मुम्बईसें प्रसिद्ध होने वाला जैनपत्रके १८ वें अङ्कके पृष्ठ १० विषे गुजराती भाषामें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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