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________________ [ १६७ ] अनुसारसें हरेक वर्ष में आषाढ़ शुदि चतुर्दशीसें लेके भाद्रव शुदि ४ और तुमारे कहनेसें दूसरे श्रावण शुदि ४ तक ५० दिन पूर्ण करने चाहोगें तो भी नही हो सकेगें । क्योंकि तिथियां वध घट होती है तो किसी वर्ष में ४० दिन आजायगें और किसी वर्ष में ४८ दिन भी आजायगे तब क्या आपकों जिन आज्ञा भङ्गका दूषण नही होगा ? ] अब उपरके न्यायांभोनिधिजीके लेखकी समीक्षा करके आत्मार्थी सज्जन पुरुषोंसें दिखता हुं, कि - हे भव्यजीवों न्यायांभोनिधिजी के उपरका लेखकोमें देखता हुं तो मेरेको aड़ाही खेदके साथ बहुत आश्चर्य उत्पन्न होता है : क्योंकि श्री न्यायान्भोनिधिजीनें तो शुद्धसमाचारी कारके ववनको खण्डन करना विचारके उपरका लेख लिखा था परन्तु शुद्ध समाचारी कारके सत्यवचन होनेसें खण्डन न हो सके, परन्तु न्यायाम्भोनिधिजी के लिखे वाक्य में अवश्यही श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी और अपने ही गच्छके पूर्वाचा की अवज्ञा (आशातना ) का कारण होनेसें न्यायाम्भोनिधिजी को लिखना सर्वथा उचित नही था क्योंकि देखो शुद्धसमाचारी की पुस्तक के पृष्ठ १५६ के अन्तमें और पृष्ठ १५७ के आदि में ऐसा लिखा था कि ( श्रावण और भाद्रपदमास की जैन सिद्धान्त की अपेक्षायें बृद्धिका ही अभाव हे केवल पौष और आषाढमासकी ही वृद्धि होती थी और इस समय में तो लौकिक टीप्पणाके अनुसार हरेक मासोंकी वृद्धि होनेसे श्रावण और भाद्रपद की वृद्धि होती है ) इस शुद्ध समाचारी का लेखको खण्डन करने के लिये म्यायाम्भोनिधिजी लिखते हैं कि ( हे मित्र मासवृद्धिका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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