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________________ [ १३० ] ( आसाढ़े मासे दुष्पया इत्यादि सूर्य्यचारे ) इस वाक्यको लिखके तीनों महाशय अधिक मासमें सूर्यचार नहीं होता है ऐसा ठहराते है सो भी मिथ्या हैं क्योंकि अधिक मासमें अवश्यही निश्चय करके सूर्यचार आनादिकाल से होता आया है और आगे भी होता रहेगा तथा वर्तमान काल में भी होता है सो देखिये शास्त्रोंके प्रमाण श्रीचन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र में १ तथा वृतिमें २ श्रीसूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र में ३ तथा वृत्ति में ४ श्रीवृहत्कल्प वृत्तिमें ५ श्रीभगवतीजी मूलसूत्र के पञ्चम शतक के प्रथम उद्देशेमें ६ तत्वृतिमें 9 श्रीजंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र में ८ तथा इन्हीं सूत्रकी पांच वृत्तियों मे १३ श्रीज्योतिष. करंडपयन की वृत्ति में १४ श्रीव्यवहारसूत्र वृत्ति में १५ और लघु तथा बृहत दोनुं संग्रहणीसूत्र में ११ तथा तिस की चार वृत्तियों में २१ और क्षेत्रसमास के तीन मूल ग्रन्थों में २४ तथा तीन क्षेत्रसमासों की सात वृत्तिओं में ३१ इत्यादि अनेक शास्त्रों में अधिक मासमें सूर्यचार होनेका कहा है अर्थात् सूर्यचारके १८४ मांडलेके १८३ अन्तरे खुलासा पूर्वक कहे है जिसमें दिन प्रते सूर्य अपनी मर्यादा पूर्वक हमेसां गति करके १८३ दिने दक्षिणायनसे उत्तरायण और फिर १८३ दिने उत्तरायण से दक्षिणायन इसीही तरहसे एक युगके पांच सूर्य संवत्सरोंके १८३० दिनों में सूर्यचारके १० आयन होते हैं जिसमें चन्द्रमासकी अपेक्षासे दो मासकी वृद्धि होने से ६२ चन्द्रमासके १८३० दिन होते हैं इसलिये अधिक मासके दिनोंकी गलती करनेसेही सूर्यचारके गतिका प्रमाण मिल शकेगा, अन्यथा नहीं ? और लौकिक पञ्चांगमें भी अधिक मासके दिनोंकी गिनती सहित सूर्यचार होता है सोही वर्त्तमानिक संवत्सर १८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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