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________________ [ ९३५ ] , और पाठकवर्ग तथा विशेष करके श्रीतपगच्छके मुनि महाशय और श्रावकादि महाशयों को मेरा इस जगह इतना हो कहना है कि आप लोग निष्पक्षपात से विवेक बुद्धि हृदय में लाकर तीनों महाशयोंके लेखको टुक नजरसे थोड़ासा भी तो विचार करके देखो इस जगह क्षामणा के सम्बन्ध में दूसरों को कहने के लिये तीनों महाशयोंने 'अधिकमासेसति त्रयोदशषु मासेषु जातेष्वपि इत्यादि । तथा 'एवं चतुर्मासकक्षामणेऽधिकमास सद्भावेऽपि, यह वाक्य लिखके अधिकमास को गिनती में लेकर तेरह मास अभिवर्द्धित सम्वत्सर में और चौमासा में भी अधिक मासका सद्भाव मान्यकर अभिवर्द्धित चौमासा पाँचमास का दिखाया । इस जगह उपरोक्त इस वाक्य से अधिकमासको तीनों महाशयोंने प्रमाण करके मंजूर करलिया और पहिले पर्युषणा के सम्बन्ध में अधिक श्रावणकी और अधिक आश्विनको गिनती निषेध कर दिवी, जब क्षामणा के सम्बन्ध में अधिक मासको गिनती में खुलासा मंजूर करलिया तो फिर विसम्वादी वाक्यरूप संसार वृद्धिकारक अधिक मासकी गिनतीका निषेध वृथा क्यों किया इसका विशेष विचार पाठकवर्ग स्वयं करलेना, और अब श्रीतपगच्छंके वर्त्तमानिक महाशयोंको मेरा इतनाही कहना है कि आप - लोग तीनों महाशयोंके वचनोंको प्रमाण करते हो तो इन्होंके लिखे शब्दानुसार अधिक मासकी गिनती मंजूर करोगे किम्वा विसंवादी पूर्वापर विरोधी वाक्यरूप निषेधको मंजूर करोगे जो गिनती मंजूरकरोगे ततो वर्त्तमानिक लौकिक पञ्चागमें दो श्रावण वा दो भाद्रपद अथवा दो आश्विनादि मासोंकी वृद्धि होनेसे अधिक मारुका गिनती में - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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