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________________ १०० दिन रहते थे इसलिये वर्तमानमें मास इद्धि दोश्राव. णादि होते भी पर्युषणाके पिछाड़ी ७० दिन रखनेका मा. यह करना सो अज्ञानतासे प्रत्यक्ष अनुचित है और जैन पंचाङ्ग इस कालमें अच्छी तरहसे नहीं जाना जाता है इसलिये उसीके अभावसे लौकिक पंचाङ्गानुसार जिस महीनेकी जिस जगह वृद्धि होवे उसीकोही उसी जगह गिनना चाहिये परन्तु अन्य कल्पना नहीं करनी,अर्थात् जैन पञ्चाङ्गके अभावसे लौकिक पञ्चाङ्गानुसार पौष, आषाढ़ के सिवाय चैत्र, श्रावणादि मासों के वृद्धिकी गिनती निषेध करने के लिये गच्छाग्रहसे अपनी मति कल्पना करके अन्यान्य कल्पनायें भी नहीं करनी चाहिये क्योंकि लौकिक पंचाङ्गानुसार चैत्र, श्रावणादि मासेांकी वृद्धि होने का प्रत्यक्ष प्रमाणको छोड़ करके पौष आषाढ़ की वृद्धि होनेवाला जैन पंचार वर्तमान में प्रचलित नहीं होते भी उसी सम्बन्धी मास वृद्धिका अप्रत्यक्ष प्रमाणको ग्रहण करनेका आग्रह करना मो भी योग्य नहीं है क्योंकि जैन पचाङ्गके अभावसे लौकिक पंचाङ्गानुसार वर्ताव करते भी उसी मुजब मास वृद्धिकी गिनती नहीं करना एसा कोई भी शास्त्रका प्रमाण नहीं होनेसे गच्छाग्रहकी युक्ति रहित कल्पना भी मान्य नहीं हो सकती है और आषाढ़ चौमासीसे ५० दिने दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करना सो तो शास्त्रोक्त प्रमाण पूर्वक तथा युक्ति सहित प्रसिद्ध न्यायकी बात है। - और अब प्राचीनकालमें जैन पंचाङ्गानुसार पर्युषणा की मर्यादावाला एक पाठ वांचक वर्गको ज्ञात होनेके लिये दिखाताहूं श्रीचैत्रवालगच्छके श्रीजगच्चंद्र सूरिजीको परंपरामें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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