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________________ [१५] ८०दिनके व १००दिनके धर्म-कर्म समयर के श्वासोश्वासके हिसाब से सर्वज्ञ भगवान्के प्रवचनानुसार अनादिमर्यादा मुजब मान्यकरेंगे, तो-८०दिनके ५ दिन,व १०० दिनके ७० दिन कहनेकाआग्रह झूठाही ठहरजावेगा यहभी न्यायबुद्धिसे विचारने योग्यहै, विशेष क्या लिखें. देव द्रव्य निर्णयः। १-वर्तमानिक देवद्रव्यकी चर्चा संबंधी अर्पण बुद्धिसे भगवा. नुको चढाई हुई वस्तु देव द्रव्यमै गिनी जातीहै, यह बात सर्वमान्य है, इसी तरहसे पूजा और आरतीकी बोलीभी अर्पण बुद्धिसे पहिले सेही संघ तरहसे भगवानको चढाई हुई वस्तु हैं, अर्थात्-देवद्रव्यमें आनेका नियम होचुका है, उनको अन्य मार्गमें ले जानेसे बिनाकारण संघकी आशा भंगका व भगवान्को अर्पण कीहुई वस्तु रूपांतरसे पीछी लेनेका दोष आताहै, इसलिये ऐसा करना योग्य नहीं है। २-भगवान की पूजा आरतिकी बोली कलेश निवारण करनेके लिये नहीं है, किंतु शुद्ध भक्तिके लिये है, देखो-अपने अनुभवसे यही मालूम होता है, कि-बहुत भाविक जन आज अमुक पर्व दिवस है, मैंरी शक्तिके अनुसार आज १०।२० या १००।२०० रुपये भगवानकी भक्तिके लिये देवद्रव्यमें जावे तोभी कोई हरज नहीं है, मगर आज तो भगवान्की पहिली पूजा-आरति मैं करूं, तो मैरे कल्याण-मंगल होवे,वर्षभर भगवान की भक्तिमे जावे,इसी निमित्तसे मैरा द्रव्य भगधानकी भक्तिमें लगेगा.तो मैरी कमाईभी सफल होवेगी, और सुकृत कीकमाईवालेभाग्यशालीको आज भगवान्की भक्तिका पहिलालाभ मिलेगाऐसाकहनेभीआताहै. इत्यादि शुभभावसेबोलीबोलते हैं, इस लिये कलेश निवारणकेलिये बोली बोलनेका ठहराना योग्य नहीं है. __ औरभी देखो-भगवान्केमंदिर बनवाने व प्रतिमा भरवाने में महान् लाभ कहा है, यह कार्य भक्ति केलिये धर्म बुद्धिसे करनेकी शास्त्राक्षा है. तोभी कितनेक बेसमझलोग नामकेलिये या अभिमानसे वा देखा देखीके विरोधभावले करते हैं, सो यह अनुचितहै. इसी तरहसे बोली बोलनेका रीवाजभी भगवान की भक्तिके लिये महान् लामका हेतु है, तोभी कितनेक बेसमझलोग नामकेलिये या अभिमानसे वा देखादेखीके विरोध भावसेबोलतेहैं. उनको देखकर बोलीबोलनेके रीवा. अको भक्ति राग छोडकर कलेश निवारणका हेतु ठहराना योग्यनहींहै. तथा देवद्रव्यकी तरह साधारण द्रव्यकीमी बहुतही आवश्य. कताहै, उसमें बे दरकारीका दोष मुनिमंडल व आगेवानोपरहै. औ. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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