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________________ [१०६ ] मझे बिना अधूरी विधिक नामसे सामायिक प्रथम करेमिभंते और पीछे इरियावही करमेकी सत्य बातको सर्वथा उडादेना सो उत्सूत्रप्र. रुपणारूप होनेसे आत्मार्थियोंको योग्य नहीं है. • ३८-देखो विवेकबुद्धिसे खूब विचारकरो-श्रीजिनदासगणिमहतराचार्यजी पूर्वधर,श्रीहरिभद्रसूरिजी,अभयदेवसूरिजी,देवगुप्तसूरि जी,हेमचंद्राचार्यजी, देवेंद्रसूरिजी,आदिगीतार्थशासन प्रभाषक महाराजोंको तो सामायिक प्रथमकरेमिभंते पीछे इरियावहीकी बात तत्त्व शानसे जिनाशानुसार सत्यमालूमपडी, इसलिये अपने२बनाये ग्रंथों में निसंदेहपूर्वक लिखगये तथा आत्मार्थी भव्यजीवभी शंकारहित सत्य बात समझकर उस मुजब सामायिककी सब विधिभी करतेथे और अभी करतेभी हैं। जिसपरभी कितनेक लोग अपने तपगच्छ नायक श्री देवेद्रसूरिजी महाराज वगैरह पूर्वाचार्योकेभी विरुद्ध होकर इस. बातमें सर्वथा विपरीत रीतिसे प्रथमइरियावही पीछेकरेमिभंते स्थापन करके जिनाज्ञाके आराधक बनना चाहते हैं और प्रथम करेमिभंते पीछेइरियावहीको शास्त्रविरुद्ध ठहराकरनिषेधकरतेहैं.अब विचारकरना चाहिये, कि- प्रथमकरेमिभंते पीछेइरियावही स्थापनकरनेवाले जिनाशाके आराधक ठहरतेहैं, या प्रथम इरियावही पीछे करेमि भंते स्थापन करनेवाले जिनाशाके आराधक ठहरतेहैं, यदि-प्रथम इरिया वही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेवाले जिनाशाके आराधक बनेंगे, तो प्रथम करेमि भंते पीछे इरियावही स्थापन करने वाले प्राचीन सर्व पूर्वाचार्य जिनाबाविरुद्ध मिथ्यात्वकी खोटी प्ररूपणा करनेवाले ठहरेगे. और यदि प्राचीन सर्व पूर्वाचार्य प्रथम करोमि भते पीछे इ. रियावही स्थापन करनेवाले जिनाज्ञाके आराधक सत्यप्ररूपणा कर. ने वाले मानोंगे, तो, उन सर्व पूर्वाचार्यों के विरुद्ध होकर प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेवाले जिनाज्ञा विरुद्ध मिथ्यास्वकी खोटी प्ररूपणा करनेवाले ठहर जावेगे. तथा इस बातमें पाठां. तरभी न होनेसे पूर्वीपर विरोधी दोनों बातेभी कभी सत्य ठहर सकतीनहीं. और प्राचीन सर्व गीतार्थ पूर्वीचार्योंकोभी खोटी प्ररूपणा करनेवालेभी कभी ठहरासकतेनहीं. मगर उन्हीं गातार्थ महाराजाक विरुद्ध आग्रह करनेवालेही खोटी प्ररूपणा करनेवाले ठहरते हैं, इस. लिये सर्व गीतार्थ पूर्वाचार्योंको जिनाशाके आराधक सत्य प्ररूपणा करनेवाले समझ करके उन सर्व महाराजोकी आज्ञा मुजब सामाथिको प्रथम करेमि भंते पीछे इरीयावही मान्य करना और इनके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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