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________________ [९१] . "अभीक्षणं, पुनः पुनः पुष्टकारणाभावे, निर्विकृतिकश्व, निर्गत विकृतिपरिभोगश्च भवेत् । अनेनपरिभोगोचित्तविकृत्तिनामप्यकारणे प्रतिषेधमाह. तथा अभीक्षणं, गमनागमनादिषु, विकृति परिभो. मेऽपि चान्ये किमित्याह-कायोत्सर्गकारीभवेत्, ईपिथिकीप्रतिक्रम. णमकृत्वान किंचिदन्यत् कुर्यादशुद्धतापत्तरितिभावः। तथा स्वाध्याययोगे,वाचनाद्यपचार व्यापार आचामाम्लादौ पयतोऽतिशय यत्नप. रोभवेत्तथैव तस्य फलवत्त्वाद्विपर्यय उन्मादादि दोष प्रसंगादिति" ऊपरके पाठमें साधुओंके उपदेशके अधिकारमें-दुध-दही-घोशकर पक्वान् वगैरह विगयोका त्याग करनेका बतलायाहै,तथा आहार पानी-देव दर्शन या ठले-मात्रे वगैरह गमनागमनादि कार्योसे इरियावही किये बिना कायोत्सर्गकरना,स्वाध्याय-सूत्रपाठपढना गुणना, ध्यानादि करना नहीं कल्पे, इस लिये पहिले इरियावही करके पीछे सूत्र वाचनादि कार्यों में प्रवृत्ति करें, इत्यादि. ११ - इस ऊपरके पाठमभी साधुओके गमनागमनादिकारणसे व स्वाध्यायादि करनेकेलिये इरियावहीकरनेका बतलाया है, मगर श्रावकके सामायिक करनेसंबंधी प्रथम इरियावहीकरके पीछे करेमि भंते उच्चारण करने का नहीं बतलायाहै,जिसपरभी पंचमहाव्रतधारीस. र्व विरति साधुओंके इरियावहीके पाठका आगे पीछेका संबंध छोड कर अधूरे पाठसे सामायिकका अर्थ करना बड़ी भूल है. १२- इसी तरहसे किसी जगह पौषधसंबंधी इरियावहीके, किसी जगह उपधानसंबंधी इरियावहीके, किसीजगह साधुओंके गम. नागमन संबंधी इरियावहीके,किसी जगह प्रतिक्रमण संबंधी इरिया वहीके, किसीजगह चैत्यवंदन-स्वाध्याय-ध्यानसंबंधी इरियावही. के अक्षरोंको देख कर, उन जगहके प्रसंगसंबंधी शास्त्रकारों के अभिप्रायकोसमझे बिनाही अथवा तो अपना झूठा आग्रह स्थापन करने के लिये आवश्यक चूर्णि-बृहवृत्ति-लघुवृत्ति-श्रावकधर्मप्रकरणवृत्ति वगैरह अनेकशास्त्रपाठोंकेविरुद्धहोकर पौषधादिसंबंधी इरियावही. को सामायिक जोडकर प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंतेके पाठका उच्चारण करनेका ठहराना सो सर्वथा प्रकारसे अज्ञानतासे या जानबुझकरके उत्सूत्रप्ररूपणारूपही मालूम होता है. देखिये- सामायिक प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेवालोंको अनेक दोषोंकी प्राप्ति होतीहै, सोही दिखाताई: १३ - जैनाचार्योंकी शास्त्ररचना अविसंवादी पूर्वापर विरोध Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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