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________________ [८९] ६-“पयमख्खरंपि इकं, जो न रोएइ सुत्तनिद्दिष्ठं । सेसं रोअंतो विह, मिच्छाहिही जमालिव्व ॥१॥” इत्यादि शास्त्रीय प्रमाणके इस वाक्यसे सर्वशास्त्रोंकी बातोपर श्रद्धा रखनेवालाभी यदि शास्त्रोंके एक पद या अक्षरमात्रपरभी अश्रद्धाकरे, तो उसको जमालिकीतरह मिथ्या दृष्टि समझना चाहिये । अब इस जगह श्रीजिनाशाके आरा. धक आत्मार्थी सजनोंको विचार करना चाहिये, कि-श्रीहरिभद्र. सूरिजी, नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरिजी, हेमचंद्राचार्यजी, लक्ष्मीतिलकसरिजी,देवेंद्रसूरिजी,वगैरह महापुरुषोंके कथन मुजब आव. श्यक बृहद्वृत्ति वगैरह प्रामाणिक व प्राचीन शास्त्रोके पाठोंसे श्रावकके सामायिक प्रथम करोमिभंते पीछे इरियावही करने संबंधी जिनाशानुसार सत्य बातपर श्रद्धा नहीं रखने वाले, तथा इस सत्य बातकी प्ररूपणाभी नहीं करनेवाले,और उसमुजब श्रावकोकोभीनहीं करवानेवाले,व इससे सर्वथाविपरीत प्रथमइरियावही पीछे करेमिभंते करवानेका आग्रह करनेवालोको ऊपरके शास्त्रवाक्य मुजब जि. नाशाके आराधक आत्मार्थी सम्यग्दृष्टि कैसे कहसकतेहैं, सो आपने गच्छके पक्षपातका दृष्टिरागको और परंपराके आग्रहको छोडकर तत्व दृष्टिसे सत्यशोधक पाठकगणको खूब विचार करना चाहिये। ७- ऊपर मुजप सत्यबातको न्यायरत्नजीने 'खरतर गच्छ समी. क्षा में सर्वथा उडादियाहै,और इनसत्य बातकेसर्वथा विरुद्ध होकर सामायिक करनेमें प्रथम इरियावही किये बाद पीछेसे करेमिभंतेका उच्चारणकरनेका ठहरानेके लिये शास्त्रोके आगे पीछके संबंधवाले पाठोंको छोडकर बिना संबंधवाले अधूरे २ (घोडे २) पाठ लिखकर अपनी मति कल्पना मुजब खोटे २ अर्थ करके व्यर्थही उत्सूत्रप्रहपणासे उन्मार्गको पुष्ट किया है, उसकाभी यहां पर पाठकगणको निसंदेह होनेकेलिये प्रत्यक्ष प्रमाणसे थोडासा नमूना बतलाता हूं : ८- श्रीमहानिशीथसूत्रके तीसरे अध्ययनमें उपधान करने सं. बंधी चैत्यवंदन करनेकेलिये जो पाठहै, सो पहिले दिखलाताहूं, यथा "असुहकम्मक्खयठा, किंचि आयहियं चिइवंदणाई अणूटिप्रझा, तयात्तयढे चेव उवउत्ते से भवेजा, जयाणं से तयढे उक्उत्ते भवेजा, तया तस्लणं परममेगचित्त समाही हवेझ्झा, तयाचेव सब्ध जगजीवपाणभूयसत्ताणं जहिठ्ठफलसंपत्ती भवेज्भा, ता गोयमा णंअपडिताए इरियावहियाए नकण्पद चेवकाऊ किंचिइवंदणं स. जायझ्झाणाइयंकाउं, इफलासायमभिकखुगाणं, एएणं अटेणं गोय. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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