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________________ [६] हठको छोडाभी नहीं. यह कितना बडा भारी अभिनिवेशिक मिथ्या. स्वका आग्रह कहाजावे सो दीर्घदर्शीतत्त्वा जनस्वयंविचार सकतेहैं. ..औरभी न्यायरत्नजीने एक हँडबील तथा 'अधिकमासदर्पण' नामा छोटीसी एक किताब छपवाया, उनमेभी विज्ञापन ७ वेमें जो हमने उनकी १२ भूले बतलायीथी, उन सब भूलोका अनुक्रमसे पूरे पूराखुलासाकरनेके बदले १भूलकाभी पूरेपुरा खुलासा करसके नहीं और मास वृद्धिके अभावसे पर्युषणाके बाद ७० दिन रहनेका व दु. सरेआषाढमें चौमासी कार्य करनेका तथा श्रावण- पौषसंबंधी कल्या. णक तप वगैरह सब बातोंका स्पष्ट खुलासापूर्वक निर्णय 'लघुपर्यु. षणा' में और सातवे विज्ञापनमें अच्छीतरहसे हमबतला चुकेहैं, तो. भी उन्ही बातोंको बालहठकी तरह वारंवार लिखे करना और स्थानांगसूत्रवृत्ति, निशीथचूर्णि, कल्पसूत्रकी टीकार्य आदि बहुत शास्त्रोंमे मास बढे तब पर्युषणाके बाद १०० दिन ठहरनेका कहा है, तथा अधिक महीनेके ३० दिन गिनतीमें लिये हैं, इसलिये अधिक महीना होवे तब ७० दिनकी जगह १०० दिन होवें उसमे कोई दोष नहीं है. मगर पर्युषणापर्व किये बिना ५०वे दिनको उल्लंघन करें तो जिनाशा भंगका दोष कहाहै,इसीलिये ५०दिनकी जगह ८०दिनतो क्या परंतु ५१ दिनभी कभी नहीं होसकते इत्यादि बहुत सत्य २ बातोको उडा. देनका उद्यम किया सो सर्वथाअनुचितहै, इनसब बातोका विशेषनि. र्णय ऊपरके भूमिकाके लेखमें और इन ग्रंथमें विस्तार पूर्वक शास्त्रों. के प्रमाणोसहित अच्छी तरहसे खुलासासे छपचुका है, इसलिये यहांपर फिरसे लिखनेकी कोई आवश्यकता नहींहै, पाठक गण ऊपरके लेखसे सब समझ लेंगे। अब हम यहां पर 'खरतरगच्छ समीक्षा' के विषयमें थोडासा लिखते हैं, न्यायरत्नजीः 'खरतरगच्छ समीक्षा' नामा किताब छपवाने संबंधी वारंवार जाहेर खबर लिखते हैं, यह किताब आज लगभग १२-१३ वर्षहुए उनाने बनायाहै, जब हम संवत् १९६५ को श्रीअंतरिक्ष पार्श्वनाथजी महाराजकीयात्रा करनेकेलिये बराड देशमें गये थे, तब बालापुरमें न्यायरत्नजी हमकोमिलेथे, उससमय उस किताबकी कॉपी उन्होंनेहीखास मेरेको वंचायाथा,तब मैने उस किताबपर महानिशीथ वगैरह कितनेही शास्त्रोंका प्रमाण मांगा, तब न्यायरत्न. जी बोले अभीमेरे पास महानिशीथसूत्र वगैरह शास्त्र यहांपर मौजूद नहींहै, फिर कभी आगेदेखाजावेगा,ऐसा कहकर उस समय बातको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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