SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ४ ] सेभी अपनी इज्जतका बचावकरके शास्त्रार्थकरने से भगने चाहता है । ६- आपकी इच्छा धर्म स्थानमेंही सभा करनेकी हो तो भी हम तैयार हैं, देखो - आपकेही गच्छके आपके बडील आचार्य आनंद सागरजी जो अभी मुंबई में श्रीगौडीजी के उपाश्रय में हैं, उनके व्याख्यान में हजारों आदमियोंकी लभाभराती है, वहां आपका और हमारा शास्त्रा होतोभी हमें मंजूर है, मगर ऊपर लिखेमुजबनियमानुसार होनाचाहिये. अथवा मुंबई में अन्य स्थानभी बहुत हैं, जहां आप लिखे वहांही सही. वालकेश्वरमें हमारे गुरुजी महाराजके पास २-३ श्रावकों के समक्ष आपने कहा था, कि- आनंदसागरजी शास्त्रार्थ करेंगे, तो मै साक्षी रहूंगा और यदि मैं शास्त्रार्थ करूंगातो आनंदसागरजीको साक्षी बनाऊंगा सो यह योगभी आपके बन गया है, अब अपनी प्रतिशासे आपको बदलना उचित नहीं है, और सभादक्ष-दंडनायक वगैरह नियमभी मिलकर जलदी करीयेगा. ७- और आप लिखते हैं, कि " पर्युषणापर्व निर्णय, छपनेको नव महीने होगये दरेक बयानका पूरेपूरा उत्तर दीजिये" जबाब- म हाशयजी श्रावको विशेष पैसे खर्च न होनेके लिये व किताबें छपवानेसे बहुत वर्षोंतक खंडन मंडनका प्रपंच नहीं चलानेके लियेही आपकी किताबों का उत्तर सभामें देनेका विचार रख्खा है, सो प्रथम विज्ञापन में लिखभी चुका हूं. इसलिये ९ महीनेका लिखना आपका अनुचित है, और श्रीमान् पन्यासजी केशरमुनिजीके बनाये 'प्रश्नोत्त र विचार " और " हर्षहृदयदर्पण' का दूसरा भागके पर्युषणासंबंधी लेख, व 'प्रश्नोत्तर मंजूरी' के तीन (३) भागके ४००-५०० पृष्ट छपेको आज ४ वर्ष ऊपर हो चुका है, उनकी प्रत्येक बातका उत्तर आजतक आप कुछभी नहीं दे सकते, तो फिर ९ महीने किस हिसाबमें हैं, और मेरे लघुपर्युषणा निर्णय के सब लेखौकाभी पूरा उत्तर ११ महीनेहो गये तो भी आजतक आप न दे सके, बल्कि सत्य सत्य लेखों के पृष्टके पृष्ट और पंक्तियेकी पंक्तियें छोड़कर अधूरा लेख लिखकर उल टार ही जवाब देते हैं, यह जवाब नहीं कहा जा सकता, सत्यता तभी मानी जा सकेगा कि पूरे पूरा लेख लिखकर अभिप्राय मुजब बरोबर उत्तर दिया जावे, सो तो आपने अपनी दोनों किताबों में कहींभी नहीं किया, और उलट पुलट झूठाझूठाही लिख दिखलाया है, सो यह युक्तही है सत्यको कौन असत्य बना सकता है। मगर कुक्तियों से बात को अपनी तरफ खींचना अलग बात है । देखिये हमनें तो आपकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034484
Book TitleBruhat Paryushana Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy