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________________ षष्ठः ६] भाषाटीकासमेतम् । (२३) अङ्गाधिपे लग्नगते तृतीये धनालये वा प्रथम सुतः स्यात्॥सुखे यदा लग्नपतौ नरस्य कन्या सुतो वेति सुतश्च कन्या ॥२॥ लग्नेश लग्न, धन, तृतीयमें से किसीमें हो तो प्रथम पुत्र पीछे कन्या होगी, यदि लग्नेश चतुर्थ हो तो मनुष्यके प्रथम कन्या पीछे पुत्र, पुनः कन्या पुनः पुत्र होते हैं । अथवा कन्या पुत्र यमल होते हैं परंतु इसमें लग्न, लग्नेश, पंचम, पंचमेश द्विस्वभावगत हों तो ये फल होते हैं ॥२॥ ___ सन्तानसंख्याविचारः। यावन्मितानामिह पुत्रभावे नरग्रहाणामिह दृष्टयः स्युः ॥ तावन्त एवास्य भवंति पुत्राः कन्यामितिः 'स्त्रीग्रहष्टितुल्या ॥३॥ पंचमभावमें जितने पुरुष ग्रहोंकी दृष्टि हो उतने पुत्र तथा जितने स्त्रीग्रहोंकी दृष्टि हो उतनी कन्या होती हैं परंतु योगकारक ग्रह यदि स्वगृह उच्चादि बलसहित हों तो द्विगुण त्रिगुण उत्पन्न करते हैं, नीचशत्रराशिगत उतने संख्याक गर्भहानि करते हैं ॥३॥ सुतहानियोगः। सहजभावपतिः सहजे यदा तनुगतो धनगो व्ययगोऽपि वा ॥ सुतगतः सुतहानिकरो नृणां । बुधवरैरुदितो मिहिरादिभिः ॥ ४॥ तृतीय भावका स्वामी तीसरा, लग्नमें दूसरा, बारहवां अथवा पंचम हो तो संतानहानि करता है । यह वराहमिहिरादि श्रेष्ठ पंडि तोंने कहा है ॥४॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034482
Book TitleBhavkutuhalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJivnath Shambhunath Maithil
PublisherGangavishnu Shreekrushnadas
Publication Year1931
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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