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________________ द्वादशः १२] भाषाटीकासमेतम् । ( १२७) पंडितों (चतुरों) में राजा-(श्रेष्ठ)भाव पायके दरबारमें जावे ॥५॥ आगमने पद्गदभययुक्तः पुत्रकलत्रसुखेन विमुक्तः॥ भानुसुते भ्रमते भुवि नित्यं दीनमना विजनाश्रयभावम् ॥६॥ शनि आगमावस्थामें जिसके होवह पैरोंके रोगके भयसे युक्त रहे. पुत्र, स्त्रीके सुखसे हीन रहे, दीन(दुःखी) मन करके एकान्तस्थानका सेवन करे और पृथ्वीमें घूमता फिरे ॥६॥ रत्नावलीकांचनमौक्तिकानां वातेन नित्यं व्रजति प्रमोदम् ॥ सभागते भानुसुते नितान्तं नयेन पूर्णो मनजो महौजाः॥७॥ शनि सभावस्थामें हो तो रत्नोंकी पंक्ति (लडियाँ) सुवर्ण, मोतियोंके समूहोंसे सर्वदा आनंदित रहे,तथा सभी समयमें मनुष्य नीतिसे परिपूर्ण होवे तथा बडा तेजस्वी होवे॥७॥ आगमे गदसमागमो नृणामब्जबंधुतनये यदा तदा ॥ मन्दमेव गमनं धरातले याचनाविरहिता मतिः सदा ॥ ८॥ यदि शनि आगमावस्था में हो तो मनुष्योंको वारंवार रोग होते रहें मन्दगति ( ढीली चाल चले) तथा संसारमें सर्वदा उसकी बुद्धि याचना ( माँगना) से रहित रहे ॥८॥ संगते जनुषि भानुनन्दने भोजने भवति भोजनं रसैः ॥ संयुतं नयनमन्दताऽज्ञता मोहतापपरितापिता मतिः ॥९॥ शनि भोजनावस्थामें जन्मकालका हो तो मनुष्यको भोजन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034482
Book TitleBhavkutuhalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJivnath Shambhunath Maithil
PublisherGangavishnu Shreekrushnadas
Publication Year1931
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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