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________________ (४१) कैसे प्राप्त हुवे ?" इस का उत्तर यह है कि-ईश्वर को अनादि माननेवाले भी उस को अवतार तो मानते हैं। जब ईश्वर को अवतार लेना माना जाय, तो गर्भोत्पत्ति आदि कष्टों के जो कारण हैं, वे भी मानने ही होंगे। कदाचित् यह कहा जाय कि “ ईश्वर को वैसा कष्ट नहीं होता है " तो यह कथन मात्र ही है । इस विषय में यहाँ विषयान्तर न करते हुवे, रत्नत्रय के सिवाय आत्मोन्नति नहीं होती है इस विषय में ही संक्षेप में प्रतिभान कराकर यह निबंध पूरा करूंगा। श्रद्धा और चारित्ररहित ज्ञान कार्यसिद्ध नहीं कर सकता है । अमुक औषधि अमुक रोग को दूर करती है, केवल इतना ही जानने से रोग दूर नहीं होता है। परन्तु क्रियारूचि पूर्वक उस बात को अमल में लाना होगा। पुनश्च केवल चारित्र से भी कार्यसिद्धि नहीं होगी। ज्ञान न होने से क्रियारूप चारित्र विपरीत फल देता है । औषधि श्रेष्ठ होवे, परन्तु अनुपान का ज्ञान न हो तो वह औषधि उल्टी नवीन व्याधि उत्पन्न करती है । एवं केवल श्रद्धा से भी कार्य की सिद्धि नहीं होती है। उद्यम और विचारशीलता की भी आवश्यकता है। श्रद्धा मात्र से ही कार्य की सिद्धि होती होवे तो बीज किस प्रकार बोना ? उत्पन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034476
Book TitleAtmonnati Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1929
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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