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________________ ( ३३ ) शुक लाता है । एवं जिस प्रकार कोद्रव नामक धान्य, दीर्घकाल में स्वयमेव छिलके रहित होजाता है, और कईएक धान्य चलनी आदि के प्रयोग से छिलके रहित किये जाते हैं, कई मनुष्यों का बुखार औषधि वगैर शान्त होता है और क एक का बुखार औषधि आदि से शान्त करना पड़ता है, उसी प्रकार कितने ही को स्वभावसे हो समकित होता है, वह निसर्ग समकित कहा जाता है, और जो दूसरों के उपदेशादि से होता है, वह अधिगम सम्यक्त्व कहलाता है । . यहाँ तक ज्ञान और दर्शन की व्याख्या की। अब तोसरे चारित्र नामक रत्न के स्वरूप पर दृष्टिपात करें । सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय कितने ही निकटभवी जीव, देशविरति और सर्वविरति रूप चारित्र को ग्रहण करते हैं । इन चारित्रों में देशविरति रूप चारित्र द्वादशव्रत रूप है । इसका वर्णन यहाँ पर नहीं करते हुए, " जैनतत्त्वदिग्दर्शन * नामक पुस्तक देखने का अनुरोध करता हूं । सर्वविरति रूप चारित्र पांच महाव्रत रूप है , * यह पुस्तक इसी पुस्तक के मूल लेखक स्वर्गस्थ आचार्य महाराज की बनाई हुई है । और वह भावनगर की यशोविजय जैन ग्रंथमालाने प्रकाशित किया है । - अनुवादक । -- 3 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034476
Book TitleAtmonnati Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1929
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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