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________________ [ ५२४ ] अतिउत्तम दूसरा च्यवन कल्याणकको अति निंदनीक लिख करके और कहकरके श्रीजिन आज्ञाके विराधक गडडरीहप्रवाही विवेकशून्य साध्वाभासोंसे हरवर्षे पर्युषणामें वंचानेका कारण करके भोले जीवोंको शासनपति तीर्थंकर महाराज श्रीवर्द्धमान स्वामिकी निन्दा करने करानेके कार्यमें फसाकर संसारमें परिभ्रमणका रस्ता दिखाना सोतो मोक्षाभिलाषी आत्मार्थी प्राणियोंके आत्मसाधनमें विघ्न कारक प्रत्यक्ष अनन्त संसारीपनेका लक्षण है क्योंकि-देखो-श्रीवीरप्रभुके गर्भापहारको दूसरा च्यवन कल्याणक मान्य करके तपश्चर्यादि धर्मकृत्यों करके आराधन करनेसे मरीचिके भवमें नीचगोत्र बांधनेकी तथा अनेक भवों में उसीको भोगनेकी और अन्तमें ब्राह्मणकुलमें अवतार होकरके गर्भापहारके होनेसे कर्मों की विचित्रगतिकी भावनासे कुलमद रहित होकरके आत्मार्थी प्राणी अपने दिलमें ऐसा विचारेगा कि, देखो अनन्त सकती वाले श्रीवीर प्रभुको भी पूर्व भवके कुल मदका कर्म भोगना पड़ा तो अल्प सकती वाला मेरे जैसा तुच्छ जीवकी तो कौन गिनती है इत्यादि भावनासे उसीको कोई बातका अभिमान नहीं हो सकेगा और विनय नम्रतादिगुणोंकी प्राप्ति होवेगी सोतो श्री वीरप्रभुके दूसरा च्यवन कल्याणकको माननेसे ही उत्तम प्रका. रकी भावना और धर्मध्यान अवश्यमेव करनेमें आवेगा उसीसे कर्मों की अनन्त निर्जरा होनेका कारण है और इस कारणसे भव्यजीवोंका कल्याणकरूप आत्मसाधनका कार्य हो सकता है इसलिये ही श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजोंने उसीको कल्याणक माना है सो आत्मसाधनाभिलाषियोंको तो अव. श्यमेव निश्चय करके गर्भापहारको दूसरा च्यवन कल्याणक मानना चाहिये और विनयविजयजीने आत्रामतासे उसीको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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