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________________ [११] पंचांगी प्रमाण करने वाले बीरप्रभुकी भावपरम्परा चलने धाले प्राचीन गच्छोंके पूर्वाचार्य छ कल्याणक मानने वाले थे और वर्तमान में भी आत्मार्थी मानते हैं और मूल आगमादिमें इसका कथन होनेसे तपगरछके भी पूर्वाचार्य छ कल्याणक मानते थे और अपने बनाये कल्पांतरवाच्य, कल्पावरि और कल्पसूत्र केस टबार्थों में कुलमगडन मूरिजी वगैरह लिख गये है जिसका खुलासा भी पहिले इस ग्रन्थ में छप गया है और वर्तमानमें भी कितने ही तपगच्छके आत्मार्थी मुनिमण छ कल्याणक मानने वाले हैं इस लिये सिर्फ खरतर गण्ड वाले मानते हैं अन्य नहीं यह भी प्रत्यक्ष मिथ्या हे तपगच्छके पूर्वाचार्य तो छ कल्याणक मानने वाले थे परन्तु यह तो वर्तमानमें तपगच्छके खरतर गच्छ के मापसमे जो प्रति वर्ष ग्राम नगर शहरादि ने पर्युषण जैसे महा उत्तम पर्वमें आत्म कल्याण संप शांति सबसे क्षमत क्षामणा करने के बदले छ कल्याणकॉका निषेध करने सम्बन्धी खण्डन मण्डन से वाद विवादहोकर कुसंपसे निन्दा इर्षादि बन कर शासनोमति के और निज परके आत्मकल्याण जो विन हो रहा है और छ कल्याणकोंके निषेध रूप उत्सूत्र प्ररुपणासे निज परके संसार सृद्धिका कारण तथा भद्र जीवोंकी श्रद्धा व धर्म कार्योनहाणी का महान् अनर्थ हो रहा है जिसके मूल कारण भूत अधिष्टायक भागिवान् धर्मसागरजी हुए हैं क्योंकि धर्मसागरजीके पहिले तपगच्छमें भाचार्य उपाध्याय साधुजन हजारौं हो गये परन्तु किसीने भी शात्रोक्त छ कल्याणकोंका निषेध धर्मसागरजीकी तरह किसी ग्रन्थ में नहीं किया इसीलिये इस विषय में दोनों गच्छोंके आपसमें पहिले बहुत संप रहता था पर्युषण जैसे महा पर्व मापसमें किसी तरहका सराहन मण्डनका झगड़ा नहीं था परन्तु धर्मसागरजीने अपने मिथ्यात्वके उदयसे तीर्थंकर गण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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