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________________ [ १] बांव मुजब सत्यवासीनीने भी अपने स्वमहाराषको . प्रवेश करने दिया। और (पूर्वकेनापि न कतमेतदधुना फरिग्यतीति मयुक्त) एस का अर्थ तो सिद्ध इतना होता है कि-पूर्व मर्यात पहले किसी ने भी मेरे चैत्यने एसा न किया और यह अभी करेंगे सो युक्त नहीं है, ऐसा उस चैत्यवासीनीने अपने चैत्य संबंधी विचारापा परन्तु सर्व जगह सर्व देशों तथा शास्त्रोंमें भी यह बात नहीं स तरहका नहीं विचारा था सो तो ऊपरके पाठसे प्रगटपने दिखता है इसलिये उसने सर्वत्र नहीं किन्तु चैत्य सबंधी विचारा था तबही तो इस तरहका विधारके अपने चैत्यके दरवाजेके माडिगिरी थी सो यह तो उन चेत्यवासीनीने अपने गड कदाग्रहके क्रोधके उदयकी महानतासे बिन बिचारा बर्ताव किया था और जब उस समयके वहाँके चैत्य वासि भाचार्य नाम घराने वाले विद्वान् कहलाते थे तोमी छठे कल्याणकका स्वरूप नाहि जानतेथे (जिसका खुलासा न्यायाम्भोनिधि जीके लेखकी समीक्षा, पहले छपचुका है) तोफिर यह तो विचारी स्त्री जाति तुच्छ बुद्धि वाली अजानि चैत्यवासिनी उसका स्वरूप कैसे जान सक्तीथी और जिसका स्वरूप नहि जान सके सस विषय में प्राणि अज्ञानतासे चाहे जैसा अनुचित वांवभि करे तो क्या उसका ज्ञानीके वर्तावसे शास्त्रोक्त मूल सत्य बात झूठी हो सक्ती है सो तो कदापि नहि और वह अज्ञानि प्राणि उसका स्वरूपनहीं जानने से तथा अपना कदाग्रहके क्रोध उदयसे विपरीत वर्ताव करे तो क्या उसका देखा देखी विधेकी विद्वानोंको भी वैसा बर्ताव करना चाहिये सो भी कदापि नहीं तो फिर उस अज्ञानी चैत्यवासीनी गच्छ कदाग्रही स्त्री जातिको तुच्छ बुद्धिकी अपने चैत्य सबन्धी अनुचित वर्तावका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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