SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 322
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (७७३ ) आता था उनके समय में भी चलता था जिसपर भी उनोंने छ क० लिखे उससे सिद्ध होता है कि उन्होंने जानबूझ करके ही छ कल्याणक लिखे हैं नतु बिना उपयोग । और उस समय इनके कथमका किसीने निषेध भी नहीं किया इससे उस समयकी तपगच्छ समुदायव उनके पूर्वज सब छ माननेवाले सिद्ध होते हैं। और आगे फिर भी धर्मसागरजीने अपने मिथ्यात्वके उदयसे श्रीगणधरसार्द्धशतकके पाठका तथा उसकी वृत्तिके पाठका और श्रीजिनवल्लभसूरिजीके कथनके भावार्थको समझे बिना इन महाराज पर छठे कल्याणककी नवीन प्ररूपणा करनेका मिथ्या दूषण लगानेके वास्ते पूर्वापरका सम्बन्धको छोड़कर बीचमेसे थोडासा अधूरा पाठ लिखके फिर उसका विपरीत उलटा अर्थ करके अन्धपरम्परामें चलनेवाले विवेक शून्योंको तथा भद्रजीवों को अपने भ्रममें गेरनेका काम करके मिथ्यात्वके सार्थवाहीका काम किया है उसकी भी समीक्षा करके पाठकगणको दिखाता हूं सो धर्मसागरजीका लेख नीचे मुगब है। “षष्ट कल्याणक प्ररूपणा मूलं तावत् चित्रकूटे चण्डिका गृहस्थिती नवीनमतव्यवस्थापनहेतवे जिनवल्लभवाचनाचार्य एव यत माह। तत्र कृतचातुर्मासिकानां श्रीजिमवल्लभवाचनाचार्याणामाश्विनमासस्य कृष्ण पक्षस्य त्रयोदश्यां श्रीमहावीरगर्भापहार कल्याणकंसमागतं, ततः श्राद्वानां पुरो भणितं जिन. वल्लभगणिमा भी प्रावका अद्य श्रीमहावीरस्य षष्टंग पहार फरवाणकं समागतं । ततः पाद्वानां पुरोमणितं षष्टंग पहार कल्याणकं 'पञ्चात्युत्तरेहोत्था-सारणापरिनिन्धुडेभयवमिति' प्रगटाररव सिद्वान्त प्रतिपादनात मन्यच तथावि किमपिविचित्यमातितो अब चैत्यवामित्वगत्वा यदि दवाShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy