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________________ ( १६७ ) गिना है उसी मुजब "लोक प्रकाश" में भी देवलोकके च्यवनको और देवानन्दा माताकी कूक्षिसे त्रिशला माताकी कुक्षिमें जाने रूप गर्भापहारको इन दोनों को अलग अलग भव गिने हैं, और प्रथम च्यवनके तथा गर्भापहार रूप दूसरे च्यवनके दोनों' जगहों पर खास श्रीकल्पसूत्रकार श्रीभद्रबाहु स्वामीजीने जघन्य मध्यम उत्कृष्ट वाचनापूर्वक अलग अलग व्याख्या विस्तार से करी है इसलिये नक्षत्र सामान्यता तथा असङ्गतिका बहाना लेना सो अज्ञानता से भद्र जीवों को व्यर्थही भ्रमानेसे संसारका कारण है इसको विशेष विवेकी तत्वज्ञजन स्वयं विचार सकते हैं। और यदि नक्षत्र सामान्यताका हठ किया जावे तो तुमारी कल्पना मुजब तो श्रीआदिनाथजी के राज्याभिषेकको भी तुम लोग नक्षत्र सामान्यता करते हो तो फिर श्रीपद्मप्रभुजी आदि तीर्थङ्कर महाराजों के पांच पांच कल्याणकोके साथ श्रीवीर प्रभुके भी पांच कल्याणक दिखाये उसी तरहसे श्री आदिनाथजीके भी पांच श्रीस्थानांगजी सूत्रमें क्यों नहीं दिखाये तथा जैसे श्रीवीरप्रभुके चरित्रो में सभी जगहों पर पांच पांचका व्याख्यान है वेसे श्रीआदिनाथजीके भी कल्पसूत्रादिमें एक नक्षत्र में पांचका व्याख्यान सूत्रकारने क्यों नहीं किया और "चउ उत्तरासाढ़" ऐसा क्यों कहा और वीर चरित्र में तो ४ हस्तो तरामें किसी जगह नहीं कहे और विशेषतासे श्रीसमवायांगजी तथा लोकप्रकाश वगैरह में अलग अलग भव गिने हैं और स्थानांग आचारांग कल्पसूत्रादिमें पांच हस्तोशर में छठा स्वातिमें' खुलासा कह दिया है इसलिये नक्षत्र सामान्यता करना व्यर्थ है इसका विशेष खुलासा विनय विजयजीके लेखकी समीक्षा में पहिले छप चुका है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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