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________________ [ ६०० ] पर परासे चार थुइको चैत्य बंदना और श्रुतदेवता अरु क्षेत्र देवताका कायोत्सर्ग करणा और तिनकी थुइ कहनी निश्चयही सिद्ध होती है, तो फेर इसमें कुछ भी बाद विवादका झगडा रह्या नहीं, इस वास्ते रत्नविजयजी अरु धनविजयजी तीन थुइका कदाग्रह छोड देवे, तो हम इनोंकों अल्पकर्मी मानेंगे ॥” देखिये ऊपर के लेख में श्रीरत्रविजयजी ( श्रीराजेंद्रसूरिजी ) के और धनविजयजीके तीन थुइके नवीन मतभेदके प्रचलीत कदा ग्रहको हटाने के लिये श्रीजिनवल्लभसूरिजी कृत सामाचारीका पाठ लिख दिखाया तथा इन महाराजको श्रीनवांगी वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरिजी महाराजकी परंपरामें लिखके दिखाये तो फिर इन्ही महाराजको कुर्च्चपुरीय गच्छके चैत्यवासीके शिष्य लिखके भद्रजीवोंको मिथ्यात्वके भरम में गेरनेका काम करने वाले को आत्मार्थी सम्यकवी कैसे माने जावे सो भी तत्वज्ञ जन विचार सकते हैं । और जब खास न्यायांभोनिधिजीने ही श्रीजिनवल्लभ सूरिनोको श्रीनवांगी वृत्तिकार श्रीअभयदेव सूरिजी के शिष्य लिखके उनकी ही परम्परा में गिने सो न्यायांभोनिधिजीका लेख हमने ऊपर लिख दिखाया है तो फिर इसी मुजब श्रीजगचन्द्र सूरिजी को भी श्रीचैत्रवाल गच्छके श्रीदेवभद्रोपाध्याय जीके शिष्य लिखके उनसे इनकी परम्परा मिलाने में न मालूम न्यायांभोनिधिजीको किस कारणसे लज्जा होगी सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने इसमें लज्जाका तो कोई कारण नहीं है, क्योंकि श्रीदेवभट्टोपाध्यायजी के शिष्य श्रीजगचन्द्र सूरिजी को लिखके श्रीचैत्रवाल गच्छसे परंपरा मिलाने में तो श्री जिनाज्ञाकी आराधना रूप महान् लाभका कारण था सो न किया। इससे यदि इनको श्रीचैत्रवाल गछको श्री महावीर स्वामी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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