SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ६६६ ] लिखते हो सो शास्त्रानुसार कैसे बन सकता है तथा सर्व मान्य भी कैसे हो सकेगा इसको दीर्घ दृष्टिसे विचारना चाहिये । अब श्रीतपगच्छ की सब समुदायवालोंसे मेरा यही कहना है कि यद्यपि श्रीजगत्चंद्रसूरिजी पहिले बड़गच्छ के थे परन्तु शिथिलाचारको छोड़करके पीछेसे चैत्रवाल गच्छ में दीक्षा ली है। इसलिये यदि आप लोग न्यायानुसार शास्त्रप्रमाण पूर्वक श्रीजिनाज्ञामुजब शुद्धपरंपरा वाले आत्मार्थी बनना चाहते हो तो इनमहाराजकी वड़गच्छसे परंपरा मिलाना छोड़कर चैत्रवाल गच्छसे परंपरा मिलाना उचित है और आजतक अज्ञानता से चैत्रवाल गच्छसे अपनी परंपरा मिलाना छोड़कर बड़गच्छसे परंपरा मिलाई जिसकी भूलको सुधारना चाहिये, परन्तु गड्डरीय प्रवाहकी तरह अन्धपरंपराकी अज्ञानताके हठवादको ही पकड़के रहना उचित नहीं है, आगे इच्छा आपकी । तथा और भी यहांपर आपलोगोंको प्रत्यक्ष प्रमाणभी दिखाता हूं कि देखो श्रीवर्द्धमानसूरिजी पहिले श्रीजिनचन्द्रसूरि नामा चैत्यवासी आचार्यके शिष्य थे सोही श्रीवर्द्धमानसूरिजीने अपना शिथिलाचार चैत्यवासको छोड़कर श्रीउद्योतनसूरिजी महाराजके पास दूसरीवार दीक्षा ली इसलिये इनमहाराजको उन चैत्यवासी शिथिलाचारि श्रीजिनचंद्रसूरिजीको परंपरामें न गिन कर दूसरी बार दीक्षालेनेके कारण श्रीउद्योतनसूरिजीकीही परंपरामें गिने गये सोतो श्रीखरतरगच्छकी पहावलियोंमें और इतिहासिक ग्रन्थों में प्रसिद्ध है और श्रीरत्नसागर के दूसरे भाग वगैरहोंमें छपा हुआ भी प्रगट है तथा श्रीजिनवल्लभसूरिजी सम्बन्धी भी ऊपर में लिखा गया है उसी मुजब आप लोगोंको भी श्रीजगत्चन्द्रसूरिजीको चैत्रवाल गच्छकी परंपरामें लिखने चाहिये इतने पर भी आपका कदाग्रह न छुटेगा तो आपकी परंपरा श्रीजि - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy