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________________ [ ६६२ ] अपना उपरोक्त 'चतुर्थ स्तुति निर्णय' का लिखा सत्य होसके परन्तु पहिले के शिथिलाचारियोंकी श्रीबड़गच्छको परम्परा में मिलाना और इन महराजको श्रीबड़गच्छके मानना सो तो प्रत्यक्षपने सर्वथा प्रकारसे शास्त्र मर्यादा से विपरीत ( श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध ) ठहरता है और न्यायांभोनिधिजोको उपरोक्त तीनथुई वाले रत्न विजयजी सम्बन्धी हितशिक्षारूप लिखना सब मिथ्या ठहरता है तिसपर भी बड़े ही अफसोसकी बात है, कि खास आप न्यायांभोनिधिजी इतने बड़े सुप्रसिद्ध विद्वान् हो करके भी " जैनतत्वादर्श" वगैरह अपने बनाये ग्रन्थोंमें श्रीजगचंद्रसूरिजीको श्रीचैत्रवागच्छके शुद्ध संयमियोंको परम्परा में लिखने छोड़कर जिनाज्ञा विरुद्ध होके श्रीबड़गच्छको शिथिलाचारियों की परम्परा में लिखे तथा वर्तमानिक श्रीतपगच्छके सब समुदाय वाले भी वैसेही मानते हैं तथा पहावलियोंमें और अन्य पुस्तकों में भी लिखते हैं सो श्रीजिनेश्वर भगवान्‌की आज्ञा भङ्ग करनेकी हेतु भूत यह कितनी बड़ी अज्ञानता है । और श्रीदेवेंद्रसूरिजी जैसे गीतार्थ महाराजने अपने गुरुजी श्रीजगन्ञ्चन्द्रसूरिजीको श्रीबड़गच्छके शिथिलाचारियोंकी परम्परा में लिखना - श्रीजिनाज्ञाविरुद्ध जानकर छोड़ दिया और श्रीचैत्रवालगच्छके शुद्धसंयमियोंकी परम्परामें लिखना श्रीजिनाज्ञानुसार जानकर खुलासा पूर्वक लिख दिया जिसको वर्तमानिक श्रीतपगच्छ के सध समुदाय वाले मान्य न करके इससे विपरीत लिखते हैं याने श्रीचैत्रवालगच्छके शुद्धसंयमियोंकी श्रीजिनाज्ञानुसार परपरामें लिखना छोड़कर श्रीवड़ग च्छके शिथिलाचारियोंकी आज्ञा विरुद्ध परम्परामें लिखते हैं मानते हैं सो क्या कारण है । क्या श्रीपगच्छके वर्तमानिक समुदायवालोंको आज्ञानुसार श्रीदेवेंद्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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