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________________ [ ६५६ ] लेकेशिथिला चारियोंकी नहीं, जिस पर भी पहिलेके शिथिला चारियोंके साथ अपनी गुरु परम्परा मिलावें तो श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध होनेसे संसार द्धिका कारण है सोही बात खास न्यायां. भोनिधिोने भी तीनथुईवाले श्रीरत्नविजयजी (श्रीराजेन्द्र सूरिजी) को उपदेश करनेके लिये “चतुर्थस्तुति निर्णय" की पुस्तककी प्रस्तावनाके पृष्ट ८ की पंक्कि १३ से पृष्ट १३ की पंक्ति ५ वीं तक लिखी है जिसका उतारा नीचे मुजब है। रत्नविजय जो बहुल संसारी न हो जावे इसी वास्ते इनोका उद्धार करना चाहीयें, ऐसा उपकार बुद्धिसें हम सब श्रावकोंकों कहने लगेके प्रथम तो यह रत्नविजयजीको जनमतके शास्त्रानुसार साधु मानना यह बात सिद्ध नहीं होती है. क्यों के ? रत्नविजयजो प्रथम परिग्रहधारी महाब्रतरहित यति थे,यहाकथा तो सर्व संघमें प्रसिद्ध है, और पोछे निग्रंथ पणा अङ्गीकार करके पञ्चमहाब्रत रूप संयम ग्रहण करा परन्तु किसी संयमी गुरुके पास उपसम्पत् अर्थात् फेरके दीक्षा लीनो नहीं, और पहले तो इनका गुरु प्रमोदविजयनी यती थे, कुछ संयमी नहीं थे यह बात मारवाडके बहोत श्रावक अच्छी तरेसें जानते है, फेर असंयतोके पास दीक्षा लेके क्रिया उद्धार करणा, यह जनमतके शास्त्रोंसे विरुद्ध है। इसी वास्ते तो श्रोवन स्वामी शाखायां चांद्र कुले कौटिकगणे वहद्गच्छ तपगच्छालंकार भहारक श्रोजगचंद्रमूरिजी महाराजे अपणेकों शिथिलाचारी जानके चैत्रवाल गच्छोय श्रीदेवभद्रगणि संयमीके समीप चारित्रोपसंपद् अर्थात् फेरके दीक्षा लीनी, इस हेतुसेतो पोज गच्चंद्रसूरिजी महाराजके परम संवेगी श्रीदेवेंद्रसूरिजी शिष्य श्रीधर्मरत्नग्रंथकी टीकाकी प्रशस्तिमें अपने बहद् गच्छका नाम छोड़के अपने गुरु प्रोजगच्चंद्रसूरिजीकों चैत्रवाल गच्छीय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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