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________________ [ ६३४ । श्रीजिनप्रतिमाजीका उत्थापन वगैरह विरुद्धाचरणकी बातीको स्थापन करनेके लिये उत्सूत्रभाषणोंसे संसार भ्रमण, दुलभबोधिपनेके दीर्घकर्मों का भय न रख्खके भद्रजीवोंको मिथ्यात्वकी भ्रमजालमें फंसानेके लिये आगमोंके पाठोंका उलटाही विपरीत अर्थ करके कुयुक्तियोंके विकल्पोंसे अनेक तरहके उटपटांग समकीतसार नामक परन्तु वास्तवमें उत्सूत्रोंकी अंधखाडकी पुस्तकमें लिखेथे, जिसका प्रति उत्तरमें भव्यजीवोंको सत्यबातकी प्राप्तिरूप उपकारके लिये “सम्यक्त्व शाल्योद्धार" नामा ग्रन्थमें खास न्यायांभोनिधिजीने उस जेठमलके तथा अन्य दूढ़ियोंके जूठे हठवादको कुयुक्तियोंके पाखडको हटानेके लिये “अज्ञानी, महामिथ्यात्वी, मूढमति, महानिन्हव, वैश्यापुत्रसमान, पशुतुल्य, दिनमें अंधे, अक्कलके दुश्मन, मूर्खशिरोमणी, महा दुर्भवी, मलेच्छ सरीखे पंथके मानने वाले, अनन्त संसारी, होण पुण्याये, दासी पुत्र तुल्य, जेठेके घापके चोपड़ेमें लिखा है" इत्यादि अनेक तरह के अनुचित कटुक शब्द बहुत जगहों पर लिखे हैं तथा जिन मन्दिर कराने वाला श्रावक १२ वें देवलोक जावे इसका निषेध करनेके लिये जेठमलने अपने अन्तरके गाढ मिथ्यात्वके उदयसे दुर्बुद्धिसे भोले जीवोंको अपनी मायाजालमें फंसानेके लिये जिन मन्दिर बनाने वालेको नरक लिख दी जिसकी समीक्षामें सम्यक्त्व शल्योद्वारके पृष्ट १८७ पंक्ति ६ से १० तक “जेठमलने उत्सूत्र लिखते हुए जरा भी विचार नहीं करा है जे कर जेठमल ढक वर्तमान समयमें होता तो परिडतोकी सभामें चर्चा करके उसका मुंहकाला कराके उसके मुखमें जरूर शकरदेते क्योंकि जूठ लिखने वालेको यही दर होना चाहिये” इस तरहके शब्द लिखे हैं और इसी पृष्टमें दढिये दूतणीये उनके सेवक सबको नरकने जानेका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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