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________________ [६३१ ] आचार्य ग्रहण नही होसकते हैं, बड़ेही अफसोसकी बात है कि गच्छकदाग्रहमें फंसेहुए प्राणी अपनी विद्वत्ताकी मिथ्या बातको जमानेके लिये सत्यबातको भी खोटी ठहराकर अपने पक्षकी खोटी बातको सत्य करनेके लिये कैसा अनर्थ करते हैं और ऐसा अनर्थ से संसार द्धिका भय नहीं करते हैं खैर। __ अब आत्मार्थी विवेकी पाठकगणसे मेरा यही कहना है कि उपरकी टीकाके पाठमें नवीन छठा कल्याणक प्ररूपणकरने सम्बन्धी एक अक्षरमात्र शब्दका गंध भी नहीं है तिसपर भी नवीन छठेकल्याणाकी प्ररूपणा करनेका न्यायांभोनिधिजीने अथाही श्रीजिनवल्लभसूरिजीको दूषण लगाया सो सर्वथा मिथ्या है इसलिये ऐसा मिथ्यालिखकर शास्त्रानुसारकी सत्यबात परसे भद्रजीवोंकी श्रद्धा भ्रष्टकरके श्रीजिनाज्ञाके विराधक बनातेहुए मिथ्यात्वमें गेरनेका वडाभारी महान् अनर्थ करने वाले तो पर लोक चले गये परन्तु मायारत्तिसे जिसके नामसे, याने-प्रोअमरविजयजी तथा श्रीकांतिविजयजीके नामसे 'जैन सिद्धान्त समाचारी' नामक पुस्तक प्रगट हुई है वे लोग तो अभी विद्यमान है तथा न्यायांभो निधिजीके समुदायमें भी तोसूरि, उपाध्याय, गणी, प्रवर्तक, पन्यास, पण्डित और न्याय रत्न विद्या सागरादि पदके धरने वाले जगत् पूज्य गीतार्थ जैसी बाह्य वृत्तिको धारण करने वालोंकी तो बहुतही समुदाय विद्यमान है सो यदि अपने गुरु न्यायांभोनिधिजीको गीतार्थ सत्यवादी शुद्धप्ररूपक समजते होवे तो उपरोक्त टीकाके पाठसे नवीन छठे कल्याणककी प्ररूपणाकरनेका सिद्ध कर दिखलावे अन्यथा अपने गुरुको मिथ्यावादी उत्सूत्रप्ररूपक जाने तो अपने गुरुके गच्छके कदाग्रह अभिमानको त्याग करके सत्य बातको ग्रहण करें और जमालीके शिष्योंकी तरह अपना आत्म Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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