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________________ [ ६०९ ] कुदाइये अपनी विद्वताकी हाँसो होनेका जरा भी भय न किया खैर । परन्तु अबी भी गच्छ कदाग्रहका मिथ्या हठवादकी कहिपत बातोंके स्थापनका आग्रहरूपी पीलियेके रोगका निवारया करने में अमृत समान औषधरूपी इस ग्रन्थके लेखको पढने से जो (न्यायांभीनिधिजीके परलोकजानेपर) इन्होंके समुदाय वालोंकों गुरु गच्छका अन्ध परंपरा के हठवादरूपी उक्त रोगका ( महान् पुण्योदयका योग्य होवे तो ) निवारण हो जावे और श्रीजिनाशाका आराधन करनेके अभिलाषवाले अल्पकर्मी होवेंगे तब तो अपना मिथ्या हठवादको मायावृत्तिसे स्थापन करने के लिये निज परके संसार वृद्धि करने वाले मिथ्यात्वको सेवन न करते हुए सरल होकरके इस ग्रन्थको सत्य बातको ग्रहण करनेमें कदापि विलंब नहीं करेंगे । और श्रीशान्तिचन्द्रगणिजी कृत श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वृत्तिका पाठ जो ऊपर में छपा है उसके पाठ श्रीमहावीर स्वामीके छ कल्याणक लिखे हैं जिसको मान्य करने में न्याय भोनिधिजी के समुदाय वाले इनकार करेंगे तो भी उन्होंका प्रत्यक्ष अन्याय होगा क्योंकि देखो खास न्यायांभोनिधिजी आप तो बाल जीवको अपनी कल्पनाका जूठा कदाग्रह में गेरनेके लिये इसी ही पाठके पूर्वापरका सम्बन्धको तोडकर बीचमें से अधूरे पाठको मायाचारीसे वृत्तिकारके विरुद्धार्थमें लिखके उपरोक्त पाठको मान्य करते है और हमने वृत्तिकारके अभिप्राय सहित सम्पूर्ण पाठ लिखके आत्मार्थी सत्याभिलाषी भव्यजीवोंको सत्य बात दिखानेको लिखा जिसको न मान्य करमेका झगडा उठाया जावे यह तो प्रत्यक्ष ही अन्तर मिथ्यात्व के अन्यायके सिवाय और क्या होगा । जिसको तो तत्वज्ञ पाठकगण स्वयं विचार लेवेंगे । १६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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