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________________ [१०] संज्ञाके नामसे लिखे जिसको देखकर गुरुगम्य शून्यतासे न्या. यांभोनिधिजीको भ्रांति पड़गई कि, टीकाकारने च्यवनादि पांच पांच स्थान कहे परन्तु पांच पांच कल्याणक नहीं कहे उसीसे च्यवनादि पांच पांच कल्याणक नहीं किन्तु कोई अन्य अर्थ वाची पांच पांच स्थान होंगे बस-इसी भ्रमसे तीर्थ कर महाराजके च्यवनादि पांच पांच कल्याणकोंसे चौदह तीर्थ कर महाराजोंके 90 कल्याणकोंका निषेध करनेका कुछमी भय न रखकर पांच पांच स्थान कहने का आग्रह किया सो भी अन्य मतियोंके पण्डितोंसे व्याकरणादि पढ़कर विद्वताके अभिमानरूपी अजीर्णताके कारणसे गुरुगम्य बिना श्रीजैन शास्त्रोंका अतीवगहनाशय न्यायांभोनिधिजीके समझने नहींमाया मालूम होता है क्योंकि चौदह तीर्थंकर महाराजोंके च्यवनादि पांच पांच स्थान कहे हैं सो ही पांच पांच कल्याणक समझने चाहिये क्योंकि देखो जैसे किसी शास्त्रमें "जब इस जीवको उपर में जाने के लिये सीढीके १४ पगथीयेरूपी १४ स्थान प्राप्त होवे गे तब महलमें जाना होगा" इस तरह का अधिकार किसी प्रसङ्गमें आजावे तो वहां मोक्षरूपी महलमें जानेके लिये सीडीके १४ पंगथीयरूपी १४ स्थान सोही १४ गुण स्थान गुणोंकी श्रेणी प्राप्त होनेसे अनन्त और अक्षय सुख मिल सकता है इस मतलबका भावार्थवाला अर्थ करना चाहिये परन्तु वहां अन्य अर्थ वाची स्थान शब्दका अर्थ कदापि नहीं हो सकेगा तैसेही यहां भी श्रीस्थानांगजी सूत्रकी वृत्तिले १४ तीर्थकर महाराजोंके च्यवनादिकोंको पांच पांच स्थान कहे सोतो निज परके कल्याण कारक मोक्ष हेतु गुणोंकी श्रेणीरूप गुणों के स्थान प्रगट पने कल्याणक भर्य की सुचना कर रहे हैं इसलिये यहां टीकाकार करपारक शब्दका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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