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________________ [ ६६ ] टीका परममान्य तो क्या परन्तु पञ्चांगीके सब शास्त्र प्रकरणादि परममान्य है नतु आप लोगोंकीतरह एक मान्य दूसरा अमान्य ॥ और 'प्रसन्नचन्दाचार्य भी गुरुका आदेश न कर सके, इससे गुरुआज्ञा विराधक नहीं समझना किन्तु श्रीअभयदेव सूरिजी महाराज स्वर्ग जाते समय श्रीप्रसन्नचन्द्राचार्यजीको कहगये थे कि अवसर आवे जब अच्छे लग्नको देखकर श्रीजिनवल्लभगतिको मेरे पाटपर स्थापनकरना सो अवसर श्रीप्रसन्नचन्दाचार्यजीको न मिलसका तब श्रीप्रसन्नचन्दाचार्यजीने श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजके कथनको श्रीदेवभद्राचार्यजीको कहा सो उन्होंने अवसर आमेसे श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजके पाटपर श्रीजिनवल्लभगणिनीको स्थापन करके श्रीजिनवल्लभ सूरिजी नाम रक्खा इसलिये पूर्वापर के सम्बन्ध रहित अधूरा पाठ लिखके अधूरी बातसे भोले जीवोंको भ्रममें गेरना आत्मारामजीको उचित नहीं था, खैर और श्रीगणघर सार्द्ध शतककी लघुवृत्तिके पाठ में किसी को सन्देह हो तो अजमेर में सौभाग्यमलजी ढढाके भण्डार में प्राचीन पुस्तक है जिसको देख लेनेकी आत्मारामजी मे भलामण करी ॥ इसपर भी मेरेको बड़ाही आश्चर्य उत्पन्न हुआ किआत्मारामजीने जैन सिद्धान्त समाचारी में अपना कल्पित मन्तव्यको स्थापन करनेके लिये २५ । ३० शास्त्रोंके पाठों को लिखे उसीमें तो किसी भी जगहपर अमुक शास्त्र पाठको अमुक जगह से देख लेने सम्बन्धी भलामण न करी क्योंकि उन शास्त्रकार महाराजों के विरुद्धार्थमें और शास्त्रों के पूर्वापर सम्बन्धवाले पाठोंको छोड़कर के शास्त्रोंके पाठोंको चोरीसे वीचमेंके अधूरे अधूरे पाठको लिखके उत्सूत्र भाषणोंसे भोले जीवोंको अपने भ्रमचक्र में गेरनेका परिश्रम किया इसलिये उन शास्त्रोंके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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