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________________ अणुव्रत सदाचार और शाकाहार जीभ को संभालने की जरूरत है स्वाद से भी और वाणी से भी । स्वाद शरीर के लिए हानिकारक है और कठोर वाणी मन के विकारों को जन्म देती है तथा कषायों की पुष्टि करती है । हर हाल में खुश रहना सीखें। शांति कहीं बाहर से नहीं आयेगी अपने अंदर से ही मिलेगी जब हम दूसरों के प्रति कटुता छोड़ देंगे और मृदुता धारण कर लेंगे। हरदम विचार करो कि मेरे साथ भले ही कुछ भी हो किन्तु हम यही दुआ करें कि दूसरों के साथ अच्छा ही हो तो निश्चि रूप से आपको दुख में भी विषम परिस्थितियों में भी असीम सुख की अनुभूति होगी । स्वयं के लिए तो सभी जी लेते हैं किन्तु दूसरों के लिए भी जिऐं यही सच्चा मानव धर्म है। प्रभु महावीर ने भी कहा था कि परस्परोपग्रहो जीवानाम् । परस्पर सहयोग ही हमारी संस्कृति है इसे हम दया और मैत्री की भावना से सींचे। सेवा ही परमो धर्मः इसलिए सेवामय रहते हुए जीवन को ऊर्जावान बनाएं तथा समाज के लिए उपयोगी बनें। सेवा भावना को हम अपने जीवन का मकसद बनाऐं । 80 39 सुखी रहना हो तो दूसरों में कमियां नहीं, सद्गुण ढूंढ़ो आज का मानव जिस कारण से दुखी है उन पर प्रकाश डालते हुए परम उपकारी गुरुदेव आचार्य सुनीलसागरजी महाराज ने आज प्रातः कालीन प्रवचन सभा में कहा कि यदि तुम्हें दुखी होना हो तो क्लेश करो, दूसरों की निंदा करो, उसमें बुराइयां ढूंढ़ो और नीचा दिखाने का कोई अवसर मत छोड़ो किन्तु यदि तुम सुखी रहना चाहते हो तो दूसरों के गुण शोधक बनो, प्रेमपूर्ण व्यवहार करो, हर एक परिस्थिति में सहज रहो, दूसरों के दोष ढंको । निज गुण अरु पर औगुण ढांके वा निज धर्म बढ़ावे ..... किसी की जय - पराजय पर सुखी - दुखी होने का विकल्प मन में मत रखो अन्यथा विपरीत परिणाम घटित होने पर दुखी ही होना पड़ता है। न किसी की जीत की कल्पना करो और न ही नाहक किसी की हार की कामना। तब किसी भी घटना के घटित होने पर आपको दुख नहीं होगा । कई बार हम सुन्दरता- असुन्दरता का विकल्प पाल कर व्यर्थ ही दुखी होते हैं। अरे! जो कायम रहने वाली वस्तु नहीं है उसके लिए क्यों दिमाग को उलझाए रखना। वस्तुतः दुखी तो हम अपनी सोच के कारण होते हैं, न करने योग्य अनावश्यक कार्यों के करने के कारण अथवा उनके न हो पाने के संताप के चलते दुखी होते हैं। जैन दर्शन में इसे अनर्थदण्ड कहा गया है जिनसे बचने की सलाह हर आत्मज्ञानी को दी जाती है । प्रायः हम किसी को भी मांगे बिना व्यवसाय आदि का ज्ञान, उपदेश देने को लालायित रहते हैं ।
SR No.034459
Book TitleAnuvrat Sadachar Aur Shakahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLokesh Jain
PublisherPrachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan
Publication Year2019
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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