SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 78 अणुव्रत सदाचार और शाकाहार नहीं और दूसरा वह किसी की मानता नहीं है। हे भव्य जीवो समझो कि जब ये दो मुख्य गुण पाये ही नहीं तो बाकी का क्या औचित्य? आचार्य भगवन ने कहा कि आज कई जगह इससे भी बदतर स्थिति है। क्योंकि कुछ लोग हैं जो जानते हैं किन्तु मानते नहीं हैं वे सभ्यता के लिए खतरनाक हैं। इससे भी अधिक खतरनाक वे लोग हैं जो ना जानते हैं, ना मानते हैं फिर भी अपनी तानते हैं। गुरुदेव कहते हैं कि इन समस्याओं का समाधान विवेकपूर्ण आचरण, मर्यादापूर्ण भोगोपभोग के संकल्प को सीमित करने से हो सकता है और जीव के परिणामों की निर्मलता बढ़ सकती है। सभी इस व्रत को जीवन में अपना कर श्रेष्ठ साधना पथ के अनुगामी बनें यही मंगलकामना। 38 पत्थर पर नाम लिखने वाला नहीं अपितु सेवाभावी दान ही श्रेष्ठ पात्र को उत्तम विधि से तैयार किए गए उत्तम वस्तुओं का दान सेवा दान है महादान है। पत्थर पर नाम लिखने वाला दान नहीं अपित सेवाभाव वाला दान ही श्रेष्ठ है। सेवादान अप्रतिम है। आहारदान, औषधि दान, अभय दान तथा विद्या का दान श्रेष्ठ माना गया है। अतिथि संविभाग नामक अंतिम शिक्षाव्रत का उपदेश देते हुए परम कृपालु गुरुदेव आचार्य सुनील सागरजी महाराज ने कहा कि एक श्रावक के लिए भी दान करना उत्कृष्ट कार्य है। यह दूसरों के प्रति दया व करूणा का प्रतीक है, इसमें परस्पर सहयोग का भाव है, इसमें सामाजिक समानता की मानवीय संवेदना है इसलिए हरेक व्यक्ति को निःस्वार्थ भाव से यथाशक्ति जरूरतमंद को, साधर्मी को, मुनिजनों को, त्यागी व्रतियों को उत्तम साधन सामग्री का दान जरूर करना चाहिए। आचार्य भगवन् कहते हैं कि सेवा का दान वस्तुओं के दान से भी उत्कृष्ट है। युवा इस क्षेत्र में आगे आएं और जरूरतमंदो का सहारा बनें तब उन लोगों के मन में आशा की किरण चमक उठेगी जिनका कोई नहीं है। श्रावक के लिए बताए गए आवश्यकों में अणुव्रत, गुणव्रत के अलावा शिक्षाव्रतों में अतिथि संविभाग व्रत हमारी संस्कृति, मानवीयता एवं आध्यात्मिक विकास के सोपानों से जुड़ा हुआ है। आचार्य अमृतचंद्राचार्य कहते हैं कि अतिथि का मतलब है जिसके आने की कोई तिथि नहीं है और संविभाग का मतलब हैं अतिथि का और अपना समान भाग रखना अर्थात् स्वयं के लिए बनाए गए शुद्ध भोजन में उसका एक भाग रखना, भोजन करने बैठने से पूर्व उसकी प्रतीक्षा एवं आने का निमंत्रण देने हेतु योग्य समय पर योग्य स्थान पर पहुँचना। वह योग्य
SR No.034459
Book TitleAnuvrat Sadachar Aur Shakahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLokesh Jain
PublisherPrachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan
Publication Year2019
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy