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________________ अणुव्रत सदाचार और शाकाहार 73 तक हमें इसी प्रतीक्षागृह में रहना होगा। गुरुजनों गुणीजनों ने बिल्कुल सही संबोधन किया है "लाख बात की बात यह निश्चय उर लाओ, तोरि सकल जग द्वंदफंद निज आत्म ध्याओ।।" हे भव्य जीवो! थोड़ी सी सरल दृष्टि भी करो। व्यवहार दृष्टि तो संसार दृष्टि है, इसलिए यथायोग्य व्यवहार करो। उतना ही व्यवहार ठीक है जो निश्चय की ओर ले जाय। हम अंधेरी कोठरी से आए हुए जीव हैं। कौन पुण्य से निगोद से निकल कर यहाँ तक आ गए। चौदह राजु यात्रा में से तो सात राजु की आधी यात्रा तक की तो हो गई। अब थोड़ी सावधानी से आधा रास्ता और तय कर लो। यहाँ से सिद्धालय तक बहुत आसानी से पहुँच सकते हैं। मेरा निजधन निज में परिपूर्ण है। क्या ठीक कहा है कि "तेरा साईं तुझमें है, ज्यों पहुपन में वास" | मन को चित्त को परिणामों को ऐसा बनाओ और अपने कल्याणकारी परमात्मा के प्रति भक्तिभाव से समर्पित हो जाओ। गुजराती भजन की बहुत ही सुन्दर पंक्तियां हैं "मुक्ति मले के ना मले मने सेवा तमारी करवी छे, मेवा मले के ना मले मने सेवा तमारी करवी छ।' युवाओ! आत्मदृष्टि पैदा करो। पर्यायदृष्टि करोगे तो पामर बन जाओगे और परमात्मा दष्टि करोगे तो परमात्मा बन जाओगे। एक बार एक हजामत बनाने वाले नाई को गुरु ने दया करके उसे पारस दिया। उस हजामतवाले ने उस पारस मणि से अपनी लोहे की खुी, बेंच, उस्तरा, कैंची, पानी की कटोरी आदि सारी की सारी लोहे की वस्तुओं को स्वर्ण का बना दिया। दुकान में सारी की सारी चीजें सोने की हो गई तो उसका धंधा भी जोरों से होने लगा। किन्तु उसे कभी यह नहीं सूझा कि सारी लोहे की वस्तुओं को जो स्वर्ण की हो गईं थी उसे बेचकर कुछ अच्छा व्यापार शुरु करे | वह पैसा इकट्ठा कर धनवान बन सकता था किन्तु! उसका दुर्भाग्य... | कुछ समय बाद वही गुरुजी पुनः उस गांव में पधारे पर वह भक्त गुरु के दर्शन को नहीं गया, गुरु ने उसे बुलाया, तब वह उनके दर्शनार्थ वहाँ पहुँचा। उसको समझाते हुए गुरु महाराज ने कहा कि हे ज्ञानी जीव! समझो! सौभाग्य से हमें जिनधर्म रूपी पारसमणि मिल गई है, उस हजामतवाले की तरह दुर्भाग्य अगर हम विषय-कषायों के पीछे ही लगे रहे तो हाथ मलते ही रह जायेंगे। इसलिए अब ऐसा पुरुषार्थ करो कि मनुष्य भव पाया है तो सम्यक् पुरुषार्थ करके थोड़े ही भव में भव के पार हो जाओ।
SR No.034459
Book TitleAnuvrat Sadachar Aur Shakahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLokesh Jain
PublisherPrachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan
Publication Year2019
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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