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________________ अणुव्रत सदाचार और शाकाहार 45 बिन मांगे दे वह दूध बराबर, मांगे से दे वह पानी। वह देना है खून बराबर, जिसमें खींचातानी।। श्रेष्ठदान में हर्ष व विरक्ति का भाव होता है। आचार्य भगवन् तपस्वी सम्राट सन्मतिसागरजी महाराज उत्तम त्याग की अद्भुत मिशाल रहे हैं। उन्होंने दीक्षा के पश्चात् ऐसे सभी पदार्थों का त्याग कर दिया था जिनके बिना लोग जीवन की कल्पना नहीं कर पाते और अन्त समय में तो उन्होंने अन्न तक छोड दिया था। धन्य हैं ऐसे कठोर तपस्वी और उनकी त्याग साधना। कोटि कोटि नमन कि ऐसा संयम हम में भी प्रकट होवे। त्याग और दान दोनों अलग अलग हैं, एक में छोड़ने की क्रिया है तो दूसरे में देने की। त्याग में व्यर्थ वस्तुओं को छोड़ा जाता है जबकि दान में श्रेष्ठ वस्तुओं का दान किया जाता है। श्रेष्ठी विवेकी लोग आधी रोटी खाकर भी बाकी आधी जरूरतमंद तक पहुंचाते हैं दया व करुणा की भावना के साथ। दान में लेने वाला और देने वाला दो पक्ष होते हैं जबकि त्याग में वह स्वयं अकेला ही होता है। दान करते करते भाव विशुद्धि से दानी त्यागी बन जाता है और त्यागी भी लोककल्याण हेतु उपदेश का दान देता है। इस दृष्टि से देखें तो दोनों एक ही हैं। कषायादि राग-द्वेषजनित विषयवृत्तियों का त्याग ही उत्तम त्याग धर्म है। त्याग धर्म की उपयोगिता संन्यास का मार्ग है। ज्ञान का प्रत्याख्यान करने वाले महाज्ञानी पुरुष व्यर्थ के पदार्थों से विरक्त होते हैं और उन्हें एक पल गवाए बिना त्याग कर आत्म कल्याण की राह पकड़ लेते हैं और सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं। दान में प्रेम, दया एवं निराभिमान अनिवार्य है। त्याग व्रत आदि नाम, यश, ख्याति की अपेक्षा से कदापि नहीं करने चाहिए क्योंकि ये आत्म विशुद्धि के साधन हैं। कई बार हमारी सामाजिक व्यवस्थाएं, प्रथाएं ऐसी होती है जो उपवास आदि के धार्मिक-समाजिक समारोह में असमानता और हीन भावना का अहसास करा जाती हैं। इसलिए जहाँ तक हो धार्मिक व आध्यात्मिक उन्नति के व्यवहारों में लेन-देन से बचाना चाहिए ताकि ये विकृतियां पारिवारिक-सामाजिक क्लेश उत्पन्न करने का कारण न बने और ऐसे श्रेष्ठी श्रावक मान-प्रतिष्ठा खोने के भय से त्याग आदि तप करना ही छोड़ दे। इसी प्रकार दानादि का भी सामाजिक सरोकार देखना चाहिए कि उससे जरूरतमंद का वास्तव में भला होता है कि नहीं, सामाजिक असंतुलन घटता है या नहीं। दान इस तरह से किया जाना चाहिए कि छोटा से छोटा व्यक्ति भी इस व्यवस्था में हर्ष व सम्मान के साथ अपना योगदान सुनिश्चित कर सके। लोग जीवन में पैसे को हद से ज्यादा महत्व दे देते हैं जबकि उत्तम त्याग धर्म कहता है कि मैं धन बुरा हूँ, भला कहिये लीन पर उपकार सों। एक बार एक चेला गुरु को कहने लगा कि पैसे के बिना कुछ भी संभव नहीं है। देखो! आज यदि मेरे पास उस नाविक को देने के लिए 10
SR No.034459
Book TitleAnuvrat Sadachar Aur Shakahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLokesh Jain
PublisherPrachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan
Publication Year2019
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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