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________________ अणुव्रत सदाचार और शाकाहार इसलिए चाहना, कामना व आसक्ति का सर्वथा त्याग कर दो। परमपूज्य तपस्वी सम्राट आचार्यश्री सन्मति सागरजी महाराज की कठोर साधना एवं तपस्चर्या को श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए आचार्य गुरुदेव श्री सुनील सागरजी महाराज ने कहा कि जब जब इतिहास में "तप" की चर्चा होगी तब आचार्य गुरुवर का नाम अत्यन्त श्रद्धा के साथ लिया जायेगा । उन्होंने 72 वर्ष की आयु में 30 वर्ष जितना समय तो निर्जल उपवास की तप साधना में बिताया और जीवन के अंतिम 10 वर्षों में यह साधना इतनी कठिनतम होती गई कि 7 दिन बाद 1 दिन में 1 बार ही छाछ पानी मात्र का ही आहार । धन्य हैं ऐसे तपस्वी, उनकी उत्कृष्ट तपस्चर्या जिनका तन कुंदन की भांति दमकता था, मन करूणा दया से भरा हुआ था । वचन सिद्धि धनी गुरुवर ने इस सिद्धि का उपयोग कभी भी अपने लिए नहीं किया अपितु दयाभाव के साथ प्राणिमात्र के कल्याण के लिए अपना वात्सल्य लुटाते रहे। 43 तीर्थंकर प्रभु ऋषभनाथ, महावीर स्वामी जी आदि की कठोर व उन्नत साधना, श्रीराम की विशुद्ध वनवास साधना भारतीय इतिहास के उज्जवल पन्ने हैं। हमारे ऋषि मुनि तो तपश्चर्या के पर्याय ही हैं । हमारी संस्कृति सुभाषतानि आदि में विद्या, शील विनय आदि को तप के रूप में महिमा मंडित करती है और यहाँ तक कहती है कि जो इन गुणों से स्वयं को सुशोभित नहीं कर पाता वह नर नहीं अपितु पशु समान है तथा इस धरा पर भाररूप है। पौराणिक कथानक के अनुसार देवराज इन्द्र भी तपस्वी महर्षि दधीचि के ऋणी माने जाते हैं जिन्होंने याचक के रूप में उनकी हड्डियों मांग कर उससे अस्त्र (बज्र) बनाकर देवासुर संग्राम में विजय प्राप्त की थी । गुरुदेव ने तप के बाह्य एवं अंतरंग का भेदविज्ञान करते हुए कहा कि अनशन, अवमौदर्य, व्रतपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विवक्त शय्यासन, काय क्लेश ये बाह्य तप हैं तथा प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्ति स्वाध्याय, व्युत्सर्ग एवं ध्यान अंतरंग तप हैं । स्वाध्याय को परम तप कहा गया है। इन तपों को जीवन में धारण करके नरभव को सफल बनाया जा सकता है। अपनी आत्मा को तपाने के लिए भोजनादि विषयों का त्याग तो जरूरी है ही किन्तु दूसरों के लिए भोजनादि धन आदि पदार्थों का जरूरतमंदों के लिए करूणा के साथ त्याग सामाजिक कल्याण तथा मानवीय मूल्यों की आधारशिला रखता है, परस्पर प्रेम को बढ़ाता है । तप करते हुए, देश सेवा करते हुए यदि प्राणों का उत्सर्ग भी हो जाय तो परवाह नहीं करनी चाहिए, इस मनुष्य जन्म और उसमें मिली प्राप्तियों का यथायोग्य सदुपयोग करना चाहिए । देवता भी उत्तम तप के लिए तरसते हैं क्योंकि तप मनुष्य जन्म में ही संभव है जो हमें मिला है इसलिए यथाशक्ति तप करो ।
SR No.034459
Book TitleAnuvrat Sadachar Aur Shakahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLokesh Jain
PublisherPrachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan
Publication Year2019
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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