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________________ अणुव्रत सदाचार और शाकाहार मान प्रतिष्ठा की चाह सभी व्यर्थ है । आत्मा ही अनंत गुणों का धन है। ज्ञानी को संसार में रहते हुए कर्म करना पड़ता है लेकिन उसमें वह उलझता नहीं है। जैसे मुनिराज को आहार करना पड़ता है लेकिन वे उसमें स्वाद नहीं लेते उसी प्रकार धर्मात्मा को ग्रहस्थ धर्म के कार्य करने पड़ते हैं लेकिन वे संसार को बढ़ाने वाले सीमा से बाहर के कार्यों में अनवाश्यक रूप से उलझते नहीं है और कार्य करते हुए भी कर्तापने के अहम् से सर्वथा दूर रहते हैं । आचार्य भगवन् कहते हैं कि जिस भव्य जीवों की उपादान योग्यता जागृत हो जाती है वही इस बात को आसानी से समझ पाते हैं, विनम्रता को धारण कर पाते हैं । बन्धुओ ! जब आप गुस्सा करते हैं तो एक मिनट में 6 घंटे जितनी काम करने की शक्ति को नष्ट कर लेते हैं, जब अहंकार करते हैं तो शरीर में जहर बनता है। नदी किनारे खड़े रहने वाले पेड़ बाढ़ आने पर बह जाते है जबकि झुकने वाली घास बच जाती है। ज्यादा अकड़ने से टूटन होती है इसलिए विनम्र बनें । झुकता वही है जिसमें जान होती है, अक्कड़पन तो मुर्दे की पहचान होती है । 33 जो आदमी खड़ा खड़ा घर से नहीं निकला लोग उसे (मुर्दे की तरह) लिटाकर ले जाते है। खड़ा खड़ा निकलता है त्यागी और लेटकर निकलने वाला होता है भोगी जो अंत तक उनसे लिपटा रहता है। यदि हम परिवार के प्रति विनम्र रहते हैं तो परिवार चलता है। इसके विपरीत यदि कोई कर्तापने का अहम् रखकर व्यवहार करता है तो परिवार टूट जाता है। परिवार में एक दूसरे को सम्मान देना विनम्रता है और मान का अहम् नासूर । अहंकार इसका कि मेरी बात ही मानी जानी चाहिए किंतु यह जरुरी तो नहीं तो है कि आपकी हर बात मानी ही जाय । न माने जाने पर शरीर से स्वस्थ होते हुए भी लोग बीमार तक हो जाते हैं। कभी हम दूसरों से तुलना कर स्वयं को कमतर समझने लगते हैं, कभी हम अत्यन्त तनाव में चले जाते हैं, हमारी जरा सी उपेक्षा हो जाती है तो हम बिफर उठते हैं। इस मान कषाय के चलते अपने अपने परिणामों को ऊँचा - नीचा करें इसमें कोई सार नहीं है । प्रेम सदा क्षमा मांगता पसंद करता है । अहंकार सदा माफी देना पसंद करता है । ज्ञानी समझता है न क्षमा मांगने की चीज है न देने की । क्षमा मांगने में कुछ जाता नहीं है। सच्ची क्षमा वही है जिसमें अहंकार टूट जाय । जब आपका जन्म हुआ पहले जीभ आई, दांत बाद में। जबकि कड़क रहने वाले दांत पहले चले गए तथा मृदु रहने वाली जीभ बाद में । आचार्य आदिसागरजी कहते हैं जो गांठ आसानी से खोली जा सकती हो उसे बेबजह उलझाने की जरूरत नहीं। यदि लंबा और अच्छा जीना चाहते हो तो जीभ की तरह मृदु
SR No.034459
Book TitleAnuvrat Sadachar Aur Shakahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLokesh Jain
PublisherPrachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan
Publication Year2019
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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