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________________ 20 अणुव्रत सदाचार और शाकाहार गृहस्थ जीवन में पूज्य आचार्य आदिसागरजी अंकलीकर को आहार कराकर नदी पार कराते हुए भावना भाते थे कि इसी तरह आप मुझे भव पार करा दे, जो अंततः सच साबित हुई। गृहस्थ जीवन की साधुता व पवित्र करुणामयी भावना का एक प्रसंग है जब वे अपने खेत की पकी फसल की रखवाली के लिए जाते थे तब पक्षी उस पर बैठकर आराम से अपनी उदरपूर्ति करते थे और वे उन्हें किसी भी तरीके से उड़ाते नहीं थे। उनका पड़ौसी कहता कि इससे तुम्हारा बहुत नुकसान होगा वे कहते कि कोई बात नहीं मेरे भाग्य में होगा उतना मुझे अवश्य मिलेगा। सचमुच जब फसल कटी तो उनका प्रति बीघा प्राप्त उत्पादन पड़ौसी से दुगना था। आचार्य श्रीसुनीलसागरजी महाराज ने कहा कि हमारी भारतीय संस्कृति में शुभ-लाभ लिखने की पुरातन परंपरा है जिसका कतिपय निहितार्थ है- पहले शुभ बाद में लाभ । अर्थात् जिस लाभ का अर्जन हम करना चाहते हैं उन प्रवृत्तियों में शुभ का तत्व विद्यमान होना चाहिए। आजीविकोपार्जन नैतिक तरीके से व धर्मसम्मत होना चाहिये। एक उदाहरण के माध्यम से उन्होंने कहा कि सामजिक व्यवहारों में भी शुभ पहले और लाभ बाद में आता है। __ एक घर में लड़के वाले रिश्ते को पक्का करने आते हैं। लड़की पसंद आने पर वे कहते हैं कि चलो अब लेन-देन की बात कर ली जाय । लड़की के पिता का खून सूख जाता है इस तरह की मांग को सुनकर । लेकिन लड़के वाले ने कहा कि आप अपनी गुंजाइश के अनुसार ही शादी करना, कर्ज लेकर नहीं। क्योंकि बहू लक्ष्मी होती है और हम कर्ज की लक्ष्मी लेकर अपने घर नहीं जाना चाहते। कितने शुभ विचार! यदि सभी जन इसे स्वीकार लें तो कई सारी सामाजिक, आर्थिक और मानसिक समस्याओं का स्थायी समाधान मिल जायेगा और तब शुभ भी होगा और लाभ भी। आचार्य शांतिसागरजी की करुणा का गृहस्थ जीवन का एक और प्रसंग याद करते हुए गुरुदेव सुनील सागरजी ने कहा कि एक बार वे सम्मेदशिखरजी की यात्रा को गए। पहाड़ पर अकेली कमजोर, गरीब, बूढी मां मिली। उससे सहायता के लिए पूंछा। मना करने पर भी उसे अपने कंधे पर बिठाकर पूरी वंदना कराई। उन्होंने बालविवाह आदि कुप्रथाओं का भी विरोध किया हालांकि उनका स्वयं का विवाह 9 वर्ष की आयु में हो गया था उस समय उनकी पत्नी की उम्र मात्र 5 वर्ष थी जो अल्पआयु में ही मृत्यु को प्राप्त हो गई। बाल आयु में उनके लिए इस विवाह का मतलब खेलने के लिए साथी के मिलने जैसा था, संसार बढ़ाने या भोग विलास करने का नहीं। आज धर्म के नाम पर पशुबली जैसी कई विकृतियां प्रचलित हैं। जिव्हा के लोलपी मूढ़ लोग इसे बढ़ावा देकर हिंसादिक प्रवृत्तियों को बढ़ावा दे रहे हैं इसका रुकना जरूरी है।
SR No.034459
Book TitleAnuvrat Sadachar Aur Shakahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLokesh Jain
PublisherPrachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan
Publication Year2019
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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