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________________ अणुव्रत सदाचार और शाकाहार नजदीक जाया जा सकता है । स्व स्वरूप हमारा अपना घर है और यह लोकोक्ति एकदम सही है कि हम अपने घर में ही अधिक शक्तिशाली होते हैं। इसके लिए हमें अपने ज्ञायक स्वभाव के प्रति समर्पण को बढ़ाना है, सम्यक् श्रद्धान को दृढ़ करना है । कल से दिगंबर जैन समुदाय के अष्टान्हिका पर्व प्रारंभ आचार्य श्री सुनीलसागरजी सभवतः अष्टान्हिका पर्व के पश्चात् ससंघ आगे विहार करेंगे। 122 स्तुति भारदी-शुदी ( 108 प्राकृताचार्य आचार्य श्रीसुनीलसागरजी गुरुदेव कृत ) जयदु भारदी, जयदु भारदी - 2 जिणवाणी सारदा, सुयदेवी सरस्सदी - 2 जयदु भारदी....... जयदु भारदी.......... अर्थ-जिनवाणी, शारदा, श्रुतदेवी तथा सरस्वती आदि नामों से युक्त भारती जयवन्त हो । वीरमुह णिग्गदा, गोदमादि गंथिदा, सुदसूरी भासिदा, गुणधरादि विरइदा, कुंदकुंद - भारदी, सुदधरादि धारदी जिणवाणी सारदा, सुयदेवी सरस्सदी ।। जयदु भारदी...... । 1 । । अर्थ - वीर जिनेन्द्र के मुख से निर्गत (खिरी हुई), गौतमादि गणधरों द्वारा द्वादशांग रूप से ग्रंथित, श्रुत केवलियों द्वारा कथित, गुणधर, पुष्पदन्त व भूतबली आदि आचार्यों द्वारा विरचित कुंदकुंद भारती तथा श्रुतधराचार्यों द्वारा धारण की गई शारदा, श्रुतदेवी तथा सरस्वती आदि नामों से युक्त भारती जयवन्त हो । अण्णाण तमहारिणी, सण्णाण - सुहृद - संति दायिणी, - सुद कारिणी, बारसंग धारिणी । मिच्छत्त अंध णासदि, सम्मत्त सम्मं - सासदि जिणवाणी सारदा, सुयदेवी सरस्सदी ।। जयदु भारदी......। 2 ।। अर्थ - अज्ञानतम को हरने वाली, सद्ज्ञान - श्रुत को करने वाली, सतत शांति देने वाली, द्वादशांगरूप बारह अंगों को धारण करने वाली, मिथ्यात्व अंधकार का नाश
SR No.034459
Book TitleAnuvrat Sadachar Aur Shakahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLokesh Jain
PublisherPrachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan
Publication Year2019
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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