SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अणुव्रत सदाचार और शाकाहार 113 यदि हम ब्रह्म स्वरूप की उपलब्धि चाहते हैं तो ब्रह्मचर्याणुव्रत भी जीवन में अनिवार्य है। हमारी परिवार व्यवस्था, विवाह प्रथा, शील-सम्मत व्यवस्था एवं सभ्य संस्कृति का अद्भुत उदाहरण रही हैं जिसे आधुनिकता, स्वतंत्रता सह स्वच्छन्दता के नाम पर तार तार किया जा रहा है इससे समाज में अनैतिक दूषण ही नहीं अपितु बलात्कार, हत्या जैसे अपराध भी तेजी से बढ़ रहे हैं। ब्रह्मचर्याणुव्रती श्रावक स्वयं की पत्नी अथवा पति के सिवाय अन्य किसी की कामना नहीं करता जिससे समाज स्वच्छ एवं स्वस्थ रहता है। तीव्र कामना, अनंगक्रीडा, अपरिग्रहीत वैश्या आदि के साथ कामुक दृष्टि से व्यवहार, उसके साथ उठना बैठना, काम वासना बढ़ाने वाला साहित्य आदि पढ़ना आदि इसके अतिचार हैं। जैन संस्कृति में सेठ सुदर्शन, महासती सीता, अंजना, चंदना आदि शील की आदर्श विभूतियां रही हैं। __अंतिम परिग्रह परिमाण अणुव्रत के अतीचार हैं- अपनी निर्धारित परिग्रह की सीमाओं का उल्लघंन करना, जरूरत से अधिक सीमा तय कर लेना। जिस प्रकार जरूरत से ज्यादा खाने पर अजीर्ण हो जाता है ठीक उसी प्रकार जरूरत से अधिक धन सम्मति रखने पर कई तरह के दूषण पनपते हैं जो संगति को बिगाड़ देते हैं, श्रावकाचार से दूर कर देते हैं और गति को बिगाड़ देते हैं। एक जगह बहुत ही सुन्दर वाक्य लिखा था कि यदि आपके पास नहीं है तो यहाँ से अपनी जरूरत के मुताबिक ले जाओ और जरूरत से अधिक है तो यहाँ रख जाओ। यदि सभी जगह ऐसा हो जाए तो संभवतः गरीबी व अभाव की स्थितियां समाज में न रहें। ___ हम व्रत तो ले लेते हैं किन्तु अज्ञानवश उसमें दोष लगा लेते हैं। व्रतों के पालन में सम्यग्दर्शन अनिवार्य है। इसके अभाव में व्रत पालन करने पर भी मोक्ष की उपलब्धि नहीं हो सकती। सम्यग्दर्शन का अर्थ है 7 तत्त्वों की अनुभूति, उनमें सच्चा श्रद्धान तथा भेदविज्ञान। जिनेन्द्र देव द्वारा कहे हुए वचनो में शंका करना, प्रभु स्तवन में आकांक्षाएं रखना, मुनिजनों के शरीर की व्याधि को देखकर घृणा करना, खोटे लोगों की स्तुति प्रशंसा करना आदि सम्यग्दर्शन के अतिचार हैं। इनसे बचना चाहिए। आचार्य भगवन् तर्क के साथ समझाते हैं कि हो सकता है कि जो जिनवाणी में कहा है वैसा हम नहीं देख पाते हों, अनुभव नहीं कर पाते हों किन्तु यह हमारी बुद्धि व ग्रहणशक्ति की अल्पज्ञता, मर्यादा हो। इसलिए जिन वचनों में शंका करना अतिचार है। व्रत, पूजा, अर्चना आदि भक्ति के लिए, आत्मकल्याण के लिए है, इसके पीछे मांगने की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए तभी भाव विशुद्धि बढ़ती है जो मोक्ष की प्राप्ति में सहायक है। इसी प्रकार विचिकित्सा की बात भी कर सकते हैं। शरीर की विकारी स्थिति से कैसी घृणा। हमें घृणा त्याग कर साधर्मी की सेवा- वैयावृत्ति करनी चाहिए। खोटा स्तवन आत्मविश्वास
SR No.034459
Book TitleAnuvrat Sadachar Aur Shakahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLokesh Jain
PublisherPrachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan
Publication Year2019
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy