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________________ अणुव्रत सदाचार और शाकाहार 101 करने के लिए कषायों को छोड़ना पड़ता है। कषाय आत्मा पर आवरण डाल देती हैं। आत्मा के गुणों को प्रकट नहीं होने देती। लेकिन ये स्थायी नहीं हो सकती। जिस प्रकार घनघोर बादल सर्य के प्रकाश को ढक देते हैं किन्त सूर्य का अस्तित्व समाप्त नहीं होता उसी प्रकार आत्मा का मूल स्वभाव तो रहता ही है बस कषाय रूपी बादलों के हटने अथवा विवेक व समता के द्वारा उसे हटाने का ही इंतजार शेष रहता है। मेघो के हटने से सूर्य उसी प्रकार कषायों के हटने से आत्मा देदीप्यमान हो जाती है। 25 कषाय नाना प्रकार से कर्मबंध कराती हैं। इनमें अनंतानुबंधी, प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान तथा संज्वलन के भेद से कषाय एवं इसके कर्मफल की तीव्रता व मंदता तय होती है। अनंतानुबंधी कषाय तीव्र होती है जिसके क्लिष्ट परिणाम लंबे समय तक जीव के साथ रहते हैं, वैर भाव बना ही रहता है, मन की गांठे खुलने का नाम ही नहीं लेती इसके फलस्वरूप उसके अनंत संसार का बंध होता है। अनंतानुबंधी कषाय दुमुहे सांप की तरह है जो एक तरफ सम्यक् श्रद्धा का घात करती है तथा दूसरी तरफ सम्यक् चारित्र का। यदि 6 माह के अंदर ही किसी के प्रति कषाय का निराकरण आ जाता है तो वह दूसरे प्रकार की अप्रत्याख्यान कषाय कहलाती है। जब दूसरी प्रकार की कषाय का त्याग करके देशव्रती बन जाते हैं तो इसे मंद कषाय कहा जाता है ऐसी कषाय का निराकरण मन वचन काय से 15 दिन के भीतर आ जाता है। आसक्ति भी कषाय की उत्पत्ति का कारण हैं। जब शरीर भी हमारा सगा नहीं है फिर सांसारिक पदार्थों में आसक्ति कैसी? क्रोध मान माया लोभ के द्वारा हम इस आसक्ति की पूर्ति के लिए क्या कुछ नहीं करते? नाना प्रकार से कितने खोटे परिणामो को नहीं बांध लेते हैं? यह आसक्ति सर्वथा त्याज्य है। महाव्रती मुनिराज ज्ञान की दृष्टि रखते हुए शरीर में ममत्व का त्याग कर देते हैं, ममत्व रहित होकर समता भाव से परीषहों को सहन करते हैं। हरिवंश पुराण में श्रीकृष्ण के युवा भाई जो भगवान नेमिनाथ के संबोधन पाकर पलभर में मुनि गजकुमार बन जाते हैं, कल तक आसक्ति के सागर में मस्त थे और आज भाव विशुद्धि के नायक बन अपने होने वाले ससुर के द्वारा किए जा रहे कठिन उपसर्गों को कितनी समता से सहन करते हैं। भेदविज्ञान को समझकर शरीर की तकलीफ को अपना नहीं मानते और परमात्मा स्वरूप को प्राप्त होते हैं। जबकि हम संसारी जरा जरा सी बात पर कषाय पाल लेते हैं, परिणामों को क्लिष्ट विकत बना लेते हैं। इन कषायों को अंतरंग परिग्रह कहा गया है। आत्मा पर इन विकार रूपी कषायों का कब्जा हो जाता है। उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि भावों के द्वारा परिणाम निर्मल बनते हैं बाह्य परिग्रह का त्याग करने से भी आंतरिक परिणामों में निर्मलता आती है। आन्तरिक परिग्रह घटता है। अंदर-बाहर के प्रति आसक्ति छोड़ने
SR No.034459
Book TitleAnuvrat Sadachar Aur Shakahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLokesh Jain
PublisherPrachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan
Publication Year2019
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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