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________________ रूप मोक्षमार्ग का उपदेश तीर्थङ्कर प्रभु ने दिया है, अत: उनकी स्तुति रूप दूसरा चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक है। इससे दर्शन विशुद्धि होती है। तीर्थङ्करों द्वारा बताये हुए धर्म को गुरु महाराज ने हमें बताया है। अत: उनको वन्दन कर, उनके प्रति समर्पित होकर आलोचना करने के लिए तीसरा वन्दना आवश्यक बताया गया है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप में जो अतिचार लगते हैं, उनकी शुद्धि के लिए आलोचना करने एवं पुन: व्रतों में स्थिर होने रूप चौथा प्रतिक्रमण आवश्यक है। आलोचना करने के बाद अतिचार रूप घाव पर प्रायश्चित्त रूप मरहम पट्टी करने के लिए पाँचवाँ कायोत्सर्ग आवश्यक बताया गया है। कायोत्सर्ग करने के बाद तप रूप नये गुणों को धारण करने के लिए छठा प्रत्याख्यान आवश्यक बताया गया है। प्र. 95. चौरासी लाख जीवयोनि के पाठ में 18 लाख 24 हजार 120 प्रकारे मिच्छा मि दुक्कडं दिया जाता है। ये प्रकार किस तरह से बनते हैं? उत्तर जीव के 563 भेदों को 'अभिहया वत्तिया' आदि दस विराधना से गुणा करने पर 5,630 भेद बनते हैं। फिर इनको राग और द्वेष के साथ गुणा करने पर 11,260 भेद बनते हैं। फिर इनको मन, वचन और काया इन तीन योगों से गुणा करने पर 33,780 भेद होते हैं। फिर इनको तीन करण से गुणा करने पर 1,01,340 भेद बनते हैं। इनको तीन काल से गुणा करने पर 3,04,020 भेद हो जाते हैं। फिर इनको पंच परमेष्ठी और स्वयं की आत्मा, इन छह से गुणा करने पर (1303 श्रावक सामायिक प्रतिक्रमण सत्र
SR No.034373
Book TitleShravak Samayik Pratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParshwa Mehta
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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