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________________ कर्म - सिद्धांत और पुण्य-पाप प्रभाव नहीं पड़ता है। इससे यह फलित होता है कि मन, वचन, काया के योग अर्थात् इनकी प्रवृत्ति कितनी ही न्यून व अधिक हो इससे प्रदेशों का न्यूनाधिक बंध तो होता है, परंतु उस बंध से जीव को हानि-लाभ नहीं होता है। जीव का हित-अहित नहीं होता है । जीव का हित-अहित का संबंध अनुभाग से है और अनुभाग बंध का संबंध कषाय की मंदता - वृद्धि से है, कहा भी है 49 परमाणूणं बहुत्तमप्पत्तं वां अणुभागवइद्धि हाणीणं ण कारणमिदि। अर्थात् कर्म परमाणुओं का बहुत्व या अल्पत्व अनुभाग की वृद्धि और हानि का कारण नहीं है। -कसाय पाहुड, -जयधवला टीका पुस्तक 5, पृष्ठ 339 उदय-कर्मों का फल भोगना उदय है। मुक्ति प्राप्त करने वाले केवलज्ञानी जीवों के 13वें गुणस्थान में 42 एवं 14वें गुणस्थान में 12 प्रकृतियों का उदय रहता है, यथा तदियेक्कवज्जिणिमिणं थिरसुहसरगदिउरालतेऊदुगं । संठाणं वण्णगुरुचउक्क पत्तेय जो गिम्हि ।। तदियेक्कं मणुवगदी पंचिंदिय सुभगतसतिगादेज्जं। जसत्थिं मणुवाउ उच्चं च अजोगिचरिमम्हि ।। अर्थात् तेरहवें सयोगी केवली गुणस्थान में 42 प्रकृतियों का उदय रहता है। इनमें से 30 प्रकृतियों का इस गुणस्थान के अंतिम समय में उदय विच्छेद हो जाता है और शेष 12 प्रकृतियों का उदय चौदहवें गुणस्थान के अंतिम समय तक रहता है। 30 प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं-वेदनीय कर्म की साता-असाता में से कोई एक, वज्रऋषभनाराच संहनन, निर्माण, स्थिर, शुभ, सुस्वर, विहायोगति, औदारिक और तैजस इन 6 का जोड़ा (स्थिर,
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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