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________________ VIII पुण्य-पाप तत्त्व उपादेय है। यदि पुण्य तत्त्व को उपादेय नहीं माना जाए तो साधना का मार्ग ही अवरुद्ध हो जायेगा। संक्लेश से विशुद्धि में आना साधना का अंग है, जो पुण्य रूप ही है। जैन दर्शन में पुण्य से उपलब्ध होने वाली मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, वज्र ऋषभनाराच संहनन, समचतुरस्र संस्थान आदि पुण्य प्रकृतियों के बिना मोक्ष स्वीकार नहीं किया जाता। अत: इनकी प्राप्ति के लिए भी पुण्य तत्त्व की उपादेयता असंदिग्ध है। पुण्य को हेय मानने का एक परिणाम यह भी हुआ कि दया, अनुकम्पा, करुणा, सहानुभूति जैसे सद्गुणों को भी पुण्य का कारण मानकर हेय समझा जाने लगा, जिससे इन गुणों का महत्त्व भी समाप्त हो गया। पाप हेय है, पुण्य नहीं। प्रशस्त योग को पुण्य एवं अप्रशस्त योग को पाप कहा जाता है। इस प्रशस्त योग को उत्तराध्ययन सूत्र में ज्ञानावरणादि घाती कर्मों का क्षय करने वाला बताया गया है- 'पसत्थजोगपडिवन्ने य णं अणगारे अणंतघाइपज्जवे खवेइ।' (उत्तराध्ययन सूत्र 29.7) अशुभ से निवृत्ति एवं शुभ में प्रवृत्ति को चारित्र का लक्षण बताया गया है-'असुहादो विणिवित्तिं, सुहे पवित्तिं च जाण चारित्तं।' असंयम घातक है, इसलिए उसे छोड़ने एवं संयम में प्रवृत्ति करने के लिए आगम स्पष्ट रूप से प्रतिपादित करता है एगओ विरइं कुज्जा, एगओ य पवत्तणं। असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं।। -उत्तराध्ययन सूत्र 31.2 पुण्य एवं पाप तत्त्व की गणना नौ तत्त्वों में होती है। नौ तत्त्वों का प्रतिपादन स्थानांग (नवम स्थान), उत्तराध्ययन (28.14), पंचास्तिकाय (गाथा 108) एवं गोम्मटसार जीवकाण्ड (गाथा 621) में स्पष्ट रूपेण हुआ है। किंतु उमास्वाति ने पाप एवं पुण्य का समावेश आस्रव तत्त्व में करके सात ही तत्त्वों का प्रतिपादन किया है। इससे उनके न चाहते हुए भी पुण्य एवं पाप तत्त्वों के संबंध में अनेक भ्रान्तियाँ उत्पन्न हो गईं। यथा-पुण्य को
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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